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________________ ॐ ६२ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ * पारणे में कुछ भी न मिलने के कारण गुणसेन पर प्रचण्ड रूप से उमड़ा, जिसके कारण द्वेषवश अग्निशर्मा तपस्वी ने गुणसेन को मारने का नियाणा (दुःसंकल्प किया और वैर-परम्परावश ९ भवों तक गुणसेन को मारने का उपक्रम किया। इसके विपरीत गुणसेन ने समभावी निर्ग्रन्थ साधु बनकर उन घोर उपसर्गों को समभाव से सहन किया। फलतः प्रत्येक भव में उनके द्वारा पूर्वबद्ध अशुभ कर्म तथा इस जन्म में अग्निशर्मा के द्वारा किये गये मरणान्तक उपसर्गों (कष्टों) को समभाव के द्वारा (कषाय-निरोधरूप) संवर एवं निर्जरा अर्जित की और अन्तिम भव में चार घातिकर्मों का सर्वथा क्षय करके वे समरादित्य केवली वीतराग बने किन्तु अग्निशर्मा तो बेचारा अपने क्रूर कर्मों के कारण जन्म-जन्मान्तर तक संसार परिभ्रमण करेगा। अकषाय-संवर ने स्वयं को तथा क्रोधी गुरु को केवली बनाया चण्डरुद्राचार्य अत्यन्त क्रोधी थे। प्रचण्ड क्रोध के स्वभाव के कारण उनके सभी शिष्य उन्हें छोड़कर चले गये। एक दिन वे एक वृक्ष के नीचे बैठे थे कि कुछ बराती एक वरराज के साथ आये। मजाक में उन्होंने कहा-“महाराज ! इन्हें (वरराज को) दीक्षा लेनी है, दीक्षा दीजिये।" चण्डरुद्राचार्य ने 'आव देखा न ताव, झट से राख लेकर लोच कर दिया। अन्य सभी तो भाग गये। उक्त वरराज को मुण्डित करके उन्होंने कपड़े पहनाये, साधु बनाया। वरराज भी कुलीन घर का होने से शान्ति से सहन कर गया। नवदीक्षित ने अर्ज की-“गुरुदेव ! अब यहाँ से शीघ्र विहार कीजिये अन्यथा हंगामा मच सकता है।" गुरु-“रात्रि में, फिर मुझसे चला नहीं जायेगा।" शिष्य-“आप मेरे कंधे पर बैठ जाइये, मैं जल्दी-जल्दी चलूँगा। दूर चले जायें तभी ठीक रहेगा।" वैसा ही किया गया। रात्रि में ठीक न दिखने पर पैर इधर-उधर पड़ने से क्रोधी गुरु शिष्य को उपालम्भ देने तथा मुण्डित सिर पर डण्डा मारने लगे। रक्तधारा बह चली। फिर भी समभावपूर्वक वह सहन करता हुआ, आत्मा का स्वरूप-मंथन करता हुआ चिन्तन की धारा में चढ़कर तेजी से कर्मों की निर्जरा करने लगा। शुद्ध अध्यवसाय की धारा में बहते हुए शिष्य को केंवलज्ञान-केवलदर्शन प्रकट हो गया। ज्ञानचक्षु से अब सब कुछ दिखने लगा। सीधा चलने लगा। गुरु ने कहा-"डण्डे पड़े तो सीधा चलने लगा न?" "गुरुजी ! अब सब स्पष्ट दिख रहा है।" गुरु-"क्या कोई ज्ञान हो गया? कैसा ज्ञान हुआप्रतिपाती या अप्रतिपाती?" शिष्य-"आपकी कृपा से अप्रतिपाती ज्ञान हुआ है।' आचार्य सहसा चौंके और कंधे से उतरकर शिष्य के चरणों में झुककर क्षमायाचना करने लगे। पश्चात्तापपूर्वक अश्रुपात करते हुए वे भी क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर आत्म-स्वरूप ध्यान में मग्न हुए, कर्मनिर्जरा हुई और प्रातः होते-होते चण्डरुद्राचार्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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