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________________ कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ६१ - छोटे-बड़े किसी भी निमित्त से उत्पन्न हुआ क्रोध पहले तो अपने ही आश्रय-स्थान (शरीर और आत्मा) को जलाता है, बाद में अग्नि के समान दूसरों को जलाए या न जलाए, खुद को तो जला ही डालता है। सामने वाला क्षमाशील हुआ तो वह क्रोधी उसे नहीं भी जला सकता । क्रोध करके तप करना और तपस्या में भी क्रोध करना, दोनों बातें मूर्खता का प्रदर्शन है। क्रोधादि कषायों द्वारा बँधे हुए जिन अशुभ कर्मों का क्षय करने और आत्म-शुद्धि के लिए तप किया जाता है, उसी तपश्चरण में व्यक्ति, क्रोधादि करता है तो वह फिर अशुभ कर्मों को अपने आप बुलाकर कषाय नामक अशुभानव व अशुभ कर्मबन्ध का स्वागत करता है । इसीलिए कहा गया है कि "क्रोध बुद्धि का कुल का, धन का और स्वयं का भी विनाश करता है। साथ ही क्रोध से स्व-धर्म का भी नाश हो जाता है। इसलिए क्रोध का परित्याग करना आवश्यक है।"१ तीव्र क्रोध से सारी आत्म-शक्ति और ऊर्जा - शक्ति नष्ट कर दी भगवान महावीर का जीव १६ वें जन्म में विश्वभूति राजकुमार बना, मुनि दीक्षा ली। कठोर तपश्चर्या करके आत्म-शक्ति एवं ऊर्जा-शक्ति की उपलब्धि की । अहंकारवश मासखमण (मासिक) तप करके विशाखनन्दी पर तीव्र क्रोध किया और इस प्रकार का निदान ( नियाणा) किया कि " अगले जन्म में मैं इसे मारने वाला बनूँ।” वही हुआ। १८वें भव में वे त्रिपृष्ठ वासुदेव बने और विशाखनंदी सिंह बना। त्रिपृष्ठ वासुदेव ने उसका जबड़ा चीरकर मार गिराया । तीव्रं क्रोधवश इस घोर पापकर्म के फलस्वरूप १९ वें जन्म में वे सप्तम नरक में गये । क्रोध के कारण पहले वैर बाँधा, फिर क्रोध और हिंसाकृत्य किया। इसलिए मनीषियों ने कहा- “क्रोधो वैरस्य कारणम् । " - क्रोध वैर-विरोध और शत्रुता पैदा करने का कारण है । ऊपर की घटना में तीव्र क्रोध भी बाद में वैर परम्परा का कारण बना। अग्निशर्मा क्रोधी क्षमा वीर से गुणसेन 'समराइच्चकहा' में भी अग्निशर्मा तापस और गुणसेन राजा की घटना इसी तथ्य का समर्थन करती है। अग्निशर्मा तापस को मासखमण तप के पारणे में दो बार गुणसेन राजा के यहाँ जाने पर भी कुछ न मिला। तीसरी बार के पारणे के दिन भी पारणा नहीं हुआ। फलतः दो बार में उपशान्त हुआ क्रोध तीसरी बार के १. क्रोधो नाशयते बुद्धिमात्मानं च कुलं धनम्। धर्मनाशोभवेत् कोपात्, तस्मात्तं परिवर्जयेत् ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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