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________________ ॐ ६० ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 एक क्षण का तीव्र क्रोध करोड़ पूर्व में अर्जित तप और चारित्र को नष्ट कर डालता है __ मगर किसी सुन्दर निमित्त के मिलने पर भी यदि उपादान शुद्ध न हो तो तीव्र क्रोध करोड़ पूर्व वर्षों में अजित किये हुए तप को नष्ट कर देता है। एक आचार्य ने ठीक ही कहा है "हरत्येक दिनेनैव तेजः पाण्मासिकं ज्वरः। क्रोधः पुनः क्षणेनाऽपि, पूर्व-कोट्यर्जितं तपः।।" -ज्वर (बुखार) तो एक ही दिन में छह महीने की सारी ऊर्जा-शक्ति (तेज) नष्ट करता है, किन्तु एक क्षण में किया हुआ प्रबल क्रोध पूर्व-कोटि (करोड़ पूर्व) वर्षों में अर्जित तप को नष्ट कर देता है। ___ कोई व्यापारी ६०-७0 वर्ष में जाकर करोड़ रुपये कमाए, किन्तु यदि किसी डाकू ने सदलबल आकर पन्द्रह मिनटों में वे सब रुपये उसकी तिजोरी में से निकालकर लूट लिये। बताइये, उस व्यक्ति को कितना मनस्ताप होता है ? उसी प्रकार यदि किसी साधक ने करोड़ पूर्व वर्ष नहीं, एक जन्म के ६०-७0 वर्षों में बहुमूल्य सम्यक्चारित्र या सम्यक्तप उपार्जित किया, उसे क्रोधरूपी प्रबल चोर आत्मा में घुसकर एक क्षण में लूट ले जाये तो कैसी मनःस्थिति बनेगी उस साधक की?? अतः प्रबल शक्तिमान क्रोधकषाय को वीर बनकर शीघ्र ही भगान आवश्यक है। उत्पन्न क्रोध स्वयं का भी नाश करता है और दूसरों का भी द्वैपायन ऋषि द्वारिका नगरी के बाहर पर्वतमाला में तपश्चर्या करते हुए ध्यानमग्न थे। किन्तु शाम्ब और प्रद्युम्न आदि यादवकुमारों ने उनकी मजाक की और सताया, जिस पर एकदम तीव्र कोपायमान होकर उस क्रोधाग्नि में स्वयं जले ही, नियांणा करके प्रजा-सहित द्वारिका नगरी को भी जलाकर भस्म कर दी। इतना ही नहीं, समूचे यादव-कुल का नाश कर दिया। इस प्रकार द्वैपायन ऋषि ने स्वयं (आत्मा) को भी तीव्र क्रोध, निदान आदि द्वारा जलाया और दूसरों को भी जलाया।२ कहा भी है "उत्पद्यमानः प्रथमं दहत्येव स्वयमाश्रयम्। क्रोधः कृशानुवत् पश्चादन्यं दहति वा न वा॥" १. 'पाप की सजा भारी, भा. १' से भावांश ग्रहण, पृ. ५५३ २. देखें-अन्तकृद्दशांगसूत्र में द्वारिकादहन का प्रसंग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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