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________________ कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध ५९ हिंसादि दुष्कर्म करता है, निन्द्य और नीच कर्म करता रहता है; वह तीव्र क्रोध कर्मजात चाण्डाल माना जाता है । ' अकषाय-संवर को अपनाने से क्रोध शान्त हो गया चण्डकौशिक भंयकर सर्प इसलिए बना था कि साधु जीवन में क्रोधावेश में आकर वह अपने हितैषी शिष्य को मारने दौड़ा था, लेकिन शिष्य को तो मार न सका, स्वयं का ही मस्तक खम्भे से टकराया। सिर फट गया और वहीं उसकी मृत्यु हो गई। मरकर कौशिक नामक तापस बना । वहाँ भी पूर्व जन्म के क्रोध के संस्कार डबल हो गये। इस जन्म में भी वह न सँभला और तीव्र क्रोधवश मरकर भयंकर दृष्टिविष विषधर बना । अनेक पशु-पक्षियों और मनुष्यों को उसने मार डाला । अन्त में, पूर्व-जन्म की साधुत्व की साधना के अवशिष्ट पुण्यवश उसे विश्ववत्सल भगवान महावीर का निमित्त मिला। करुणाकर भगवान उसकी बाँबी पर पधार गये। पहले तो उसने भगवान के अँगूठे पर दंश मारा । जब समभावी वात्सल्यमूर्ति भगवान महावीर पर उसका कुछ भी असर न हुआ तो उसने उनकी शान्तमुद्रा की ओर देखा। उनका रूप कुछ परिचित - सा लगा। ऊहापोह करते-करते उसे अपने पूर्व-जन्म का स्मरण हो आया कि मैं पूर्व जन्म में साधु था, किन्तु तीव्र क्रोध के कारण मैंने सर्प योनि पाई। भगवान महावीर ने उपयुक्त अवसर जानकर उसे बोध दिया - "चण्डकोसिया ! बुज्झह बुज्झह !" - चण्डकौशिक, अब भी समझो, सँभलो, शान्त हो जाओ, इस जन्म को सुधार लो !” पूर्व जन्म की स्मृति के कारण चण्डकौशिक में आत्म-जागृति आई । सोचा- “ओहो ! भयंकर क्रोध करने के कारण मैंने तीन जन्म बिगाड़े।" भगवान से पश्चात्तापपूर्वक क्षमायाचना की, सभी जीवों से क्षमा माँगी और प्रायश्चित्तस्वरूप उसने अनशन कर लिया, अपना मुख बाँबी में डाल दिया। अब वह किसी को नहीं सताता, नहीं काटता । जो भी कष्ट आये, उन्हें समभाव से सहन किये। इस अकषाय-संवर के प्रभाव से उसकी गति सुधर गई । वह वहाँ से मरकर देवलोक में गया। यह तो ठीक था कि भगवान महावीर के सत्संग, बोध और पूर्व - जन्म - स्मरण से तीव्र क्रोधी चण्डकौशिक ने तीसरे जन्म में अकषाय-संवर की साधना स्वीकार करके जीवन सुधार लिया। १. (क) 'कर्म की सजा भारी, भा. १' से भाव ग्रहण (ख) कुद्धो सच्चं सीलं विणयं हणेज्ज । (ग) कोवेण रक्खसो वा णराण भीमो णरो हवदि । (घ) रोसेण रुद्दहिदओ णारगसीलो णरो होदि । Jain Education International - प्रश्नव्याकरण २/२ - भगवती आराधना १३६१ -वही १३६६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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