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* कषायों और नोकषायों का प्रभाव और निरोध 8 ६५ *
केवली कूरगडुक मुनि से उन्होंने नम्र होकर क्षमा माँगी। फिर पश्चात्ताप की तीव्रता, क्षमाभाव और समभाव की तीव्रता से उन्हें भी केवलज्ञान हो गया। यह था क्रोध और मान (अहंकार) को उपशान्त करने का सुपरिणाम !१
मान कषाय : आत्म-गुणों के विकास में कितना बाधक ? कषाय के चार प्रकारों में क्रोध के बाद मान कषाय का नंबर आता है। क्रोध का आत्मघाती प्रभाव अपने तन, मन, बुद्धि और आत्मा पर पड़ता है, किन्तु मान का प्रभाव अपने और दूसरे दोनों पर, यही नहीं, सारे समूह या घटक पर पड़ता है। जैसे क्रोध आत्म-समाधि का पथ प्रशस्त नहीं होने देता, वैसे मान भी नहीं होने देता। कुछ विचारकों का मत है कि क्रोध की अपेक्षा मान अधिक खतरनाक है। यही व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की चेतना में विघटन, तनाव, भेदभाव, वैषम्य और व्यवस्था-भंग का सर्जक है। अभिमान या अहंकार जीवन में सरसता, सहानुभूति, दयालुता, परोपकारिता एवं समता को भंग करके शुष्कता और नीरसता, क्रूरता
और तुच्छ स्वार्थ-परायणता, विषमता और अस्मिता लाता है। इस दृष्टि से यह आत्म-शक्ति, आत्मानन्द एवं आत्म-दृष्टि में तथा आत्मा के हित, सुख और स्वास्थ्य में बाधक है। कठोरत्म साधना, विस्मयकारी तप, जप, कष्ट-सहन, परीषह-सहन, उपसर्ग-सहन आदि के साथ जब अहंकार घुस जाता है, नामना-कामना, प्रसिद्धि, प्रशंसा, लौकिक स्वार्थसिद्धि की ममता और अहंता का प्रवेश हो जाता है, तब सारी की-कराई आत्म-साधना को विफल बना देता है। . . 'पातंजल योगदर्शन' में अविद्या के बाद 'अस्मिता' को पाँच क्लेशों में दूसरा क्लेश माना है। अस्मिता के कारण मनुष्य अपने आप को दूसरों से बल, रूप, विद्या, वैभव, तप आदि में अधिक मानने लगता है और यहीं उसकी आत्म-रमणता की साधना या स्वभाव में स्थिति की साधना ठप्प हो जाती है।
- बाहुबली मुनि मान कषाय में कैसे लिप्त हुए ? - चक्रवर्ती सम्राट भरत के साथ द्वन्द्व युद्ध में अपूर्व विजय प्राप्त करने के पश्चात् बाहुबली पूर्ण विरक्ति और दृढ़ निश्चय के साथ आत्म-साधना में जुट पड़े। शरीर-बल की अपेक्षा भी उनका आत्म-बल प्रबल था। उनकी तितिक्षा, सहिष्णुता, धीरता और दृढ़ता ने उन्हें आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया था। अपने
१. देखें-आचारांगचूर्णि में कूरगडुक मुनि का वृत्तान्त २. (क) “साधना के मूलमंत्र' से भावांश ग्रहण (ख) अविद्याऽस्मिता-राग-द्वेषाभिनिवेशाः पंचक्लेशाः।
-पातंजल योगदर्शन, साधन पाद २, सू. ३
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