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अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन ४३
प्रत्याख्यान- परिज्ञा से उसका शमन, दमन, निरोध, क्षय आदि करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। जब भी क्रोध, मद, अहंकार, माया-कपट और लोभ - स्वार्थ आदि का प्रसंग आए, इनमें से कोई भी कषाय हमला करने को उद्यत हो, मन में क्रोधादि विकार आया हो या आने का लक्षण दीखे तब तुरंत ही सँभलकर उसे शान्त कर देना चाहिए। यदि एक सेकंड भी कोई कषाय तन-मन-वचन के किसी कोने में आ गया और उसे अकषाय-संवर के साधक ने पपोल लिया या अन्तःकरण में घुसने दिया तो वह फिर बेधड़क होकर बार-बार आने और घुसने का प्रयास करेगा। तभी साधक वर्षों से अज्ञात मन में पड़े हुए क्रोधादि कषायों के संस्कारों को उखाड़ सकेगा।
अकषाय-संवर का एक उपाय : उदासीनता - अलिप्तता अकषाय-संवर की साधना के इच्छुक व्यक्ति को सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति अन्तर से विरक्ति, उदासीनता या उपेक्षातुल्य वृत्ति होनी चाहिए ।
पहले हम बता चुके हैं कि चारों कषाय तथा राग, द्वेष, काम, मोह आदि विकार भव (जन्म-मरणरूप संसार) वर्द्धक हैं। इसलिए सांसारिक शुभाशुभ प्रवृत्तियों के प्रति जितनी - जितनी आसक्ति - घृणा, राग-द्वेष, प्रियता - अप्रियता की वृत्ति होगी, उतना उतना कषाय बढ़ेगा, मोहकर्म का बन्ध बढ़ता जाएगा। इसलिए अकषाय-संवर के साधक को संसार में भी रहते हुए भी पृथ्वीचन्द्र राजकुमार की तरह रागादि - कषायादि विकारों से अलिप्त या पृथक् या उदासीन ( विरक्त) रहने का अभ्यास करना चाहिए।
पृथ्वीचन्द्र की सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति निर्लिप्तता कैसी थी ? समरादित्य और पृथ्वीचन्द्र, ये दोनों राजकुमार थे। इनमें से पृथ्वीचन्द्र को उसके पिता उसके न चाहते हुए भी विवाह बन्धन में बाँध देते हैं। परन्तु पृथ्वीचन्द्र भवभीरु था, कषाय-निरोध का अभ्यासी था। बाहर से तो उसने सांसारिक वैवाहिक प्रवृत्ति अपनाई, परन्तु अन्तर से वह उन सबसे विरक्त-सा रहता था । माता-पिता को दुःख न हो, इस लिहाज से उसे बहुमूल्य वस्त्राभूषण भी पहनने पड़े। गरिष्ठ-स्वादिष्ट खानपान भी करना पड़ा, पाँचों इन्द्रियों को विषयों का उपयोग भी करना पड़ा। सभा में सुन्दर - सुन्दर गीत भी उसे सुनने पड़े। उसके सामने वाद्य और नृत्य भी होते, जिसे उसे देखने पड़े। परन्तु इन सबको वह बाहर से - अनासक्तभाव से ग्रहण करता, मगर अन्दर से वह अपने आप को पवित्र - जलकमलवत् अलिप्त रखने का प्रयत्न करता था। वह कैसे अलिप्त या पवित्र रहता था, इस विषय में एक कवि कहता है
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