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* . ४२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
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कषायमुक्ति : परिणाम, उपाय और कारणों का दिग्दर्शक यंत्र चार कोटि के कषाय | अनन्तानुबंधी | अप्रत्याख्यानीय । प्रत्याख्यानीय । संज्वलन
चारों कषायों का आधार और कारण क्रोध की उपमा पर्वत की रेखा जमीन की रेखा रेत पर रेखा | पानी पर रेखा आत्म-प्रतिष्ठित, पर-प्रतिष्ठित, उभय प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित मान की उपमा
पाषाण स्तम्भ शरीर की हड्डी | काष्ठ स्तम्भ बाँस की बेंत आत्म-प्रतिष्ठित, पर-प्रतिष्ठित, उभय प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित माया की उपमा बाँस की जड़ | भेड़ के सींग | चलते हुए बैल की बेंत के समान आत्म-प्रतिष्ठित, पर-प्रतिष्ठित, उभय प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित
मूत्र-धारा लोभ की उपमा किरमिची रंग गाड़ी के पहिये की मली । काजल का दाग | हल्दी का रंग आत्म-प्रतिष्ठित, पर-प्रतिष्ठित, उभय प्रतिष्ठित, अप्रतिष्ठित काल मर्यादा आजीवन एक वर्ष तक चार मास तक १५ दिन तक
क्रोधादि कषायों की उत्पत्ति के चार स्थान गुण-घात सम्यक्त्वगुणदेशविरतिगुण- सर्वविरतिगुण- | वीतरागतागुण
क्षेत्र (खेत या जमीन), वास्तु (मकान, दुकान आदि गाँव, नगर, घातक अवरोधक अवरोधक प्रतिरोधक
राष्ट्र), शरीर (शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव वस्तु) एवं उपधि गति-बन्ध नरकगति-बन्धक तिर्यञ्चगति-बन्धक . | मनुष्यगति-बन्धक देवगति-बन्धक
(उपकरण व साधन-सामग्री) के निमित्त से क्रोधादि को विफल | मिथ्यात्व की गाढ़ता को | आत्म-गुणों तथा आत्म- | आत्म-समाधि में लीनता, कर्ममुक्ति के लिए सतत |
चारों कषायों के चार-चार प्रकार करने के उपाय मिटाने से सत्संग.| स्वरूप के चिन्तन, मनन, ध्यान, मान, जप, तप,| अप्रमत्त होकर विचरण, आभार मान अकषाय-संवर तथा अषण, शान, विज्ञान, म
श्रवण, ज्ञान, विज्ञान, रमण से पर-पदार्थों के प्रति संवर, निर्जरा, पर-भावों| धम- शु क ल ध्यान , कर्मनिर्जरा को सफल| अनानव, प्रत्याख्यान, | विरक्ति, उदासीनता के | के प्रति विरक्ति, संयम में| बाह्याभ्यन्तर तप. कषाय से।
। (२) अनाभोग-निवर्तित (विचारणारहित उत्पन्न) बनाने का उपाय समभाव आदि
(३) उपशान्त (उदयावस्था को अप्राप्त)। के | अभ्यास से, निरर्थक दृढ़ता, समतायोग, निरवद्य | कारणों से, मोह-ममता से अभ्यास से नैतिक | हिंसादि के प्रत्याख्यान से, प्रवृत्ति प्रत्येक चर्या में दूर रहना। आलोचना,
| (४) अनुपशान्त (उदय प्राप्त) . जीवन के आचरण से, | अणु-व्रत, नियम, संयम से | विवेक, यतना आदि | निन्दना, गर्हणा, प्रायश्चित्त चारों कषायों से अष्टविध कर्मों का आनव मार्गानुसारी के गुणों को | नव तत्त्वों पर बार-बार | महाव्रतों एवं समिति गुप्ति | आदि द्वारा | चार कारणों (चार कषायों) से ज्ञानावरणीय आदि ८ कर्मों का चय अपनाने से नवतत्त्वों | मनन करने से, रत्नत्रयरूप | का निरतिचार पालन।| आत्म-शुद्धिकरण से। (कर्मयोग्य पुद्गलों का ग्रहण), उपचय (वेदन के लिए कर्मपुद्गलों का पर श्रद्धान देव, गुरु, | धर्म या संवर-निर्जरारूप | दशविध श्रमणधर्म-पालन
निषेक = रचना करना), बन्ध (चार प्रकार से स्पष्टबद्ध, निधत्त, धर्म के प्रति श्रद्धा, | धर्म के अभ्यास से | आदि से, शुभ ध्यान से।
निकाचित रूप से कर्म-बँधना), उदीरणा, वेदना (भोगना) और निर्जरा सम्यक्त्व-प्राप्ति से। प्रतिक्रमण से।
त्रिकाल में की जाती है।
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