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ॐ अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन ॐ ४१ ॐ अतः कषायों को परिणामों के आधार पर देखा जाए तो भी व्यवहारदृष्टि से कुछ तारतम्य इनमें देखा जा सकता है। इसलिए क्रोध के बाद मान, मान के बाद माया और माया के बाद लोभ, यह क्रम शास्त्रकार महर्षियों ने इसलिए दिया है कि क्रोध से मानादि उत्तरोत्तर निकृष्ट हैं, खराब हैं। लोभ को सबसे अन्त में इसलिए दिया है कि यह सर्वविनाशक है। फिर भी उन्होंने क्रोधादि चारों कषायों की भी चार-चार डिग्रियाँ बताई हैं। वे साधक को इस प्रकार के झाँसे में डाल देती हैं कि ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचा हुआ साधक वापस नीचे गिर जाता है। मुख्य चार कषायों की चार-चार डिग्रियाँ इस प्रकार हैं(१) अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ। (२) अप्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोभ। (३) प्रत्याख्यानी क्रोध, मान, माया और लोभ। (४) संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ।
ये सोलह ही सुप्त कषाय चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से एकदम भड़क उठते हैं और अपना प्रभाव दिखाते हैं। अतः कर्ममुक्ति चाहने वाले मुमुक्षु साधक को इन १६ कषायों और इनके सहायक ९ नोकषायों से सावधान और जाग्रत होकर चलना चाहिए। इनके स्वरूप और लक्षण के विषय में कर्मविज्ञान के तृतीय और चतुर्थ भाग में संक्षेप में प्रकाश डाला है। फिर भी विहंगम दृष्टि से इनके विषय में समझने के लिए हम कषाय-यंत्र अगले पृष्ठ पर अंकित कर
- इस यंत्र को देखकर अकषाय-संवर एवं कषायमुक्ति का साधक स्वयं निर्णय कर सकता है कि कषाय किस-किस कोटि के होते हैं ? उनकी पहचान तथा उत्पत्ति के क्या-क्या लक्षण हैं ? किस कोटि का कषाय कितने काल तक रहता है ? किनकिन गुणों की घात या हानि करता है ? किस कोटि का कषाय किस गति का, किन कर्मों का चय, उपचय, बन्ध करता है। किस कोटि के कषाय को नष्ट करने के लिए क्या-क्या उपाय करना चाहिए? आदि।
कषाय के प्रत्येक पहलू को जानना और उस पर विजय पाना है मूल बात यह है कि अकषाय-संवर के साधक को सर्वप्रथम कषायों से होने वाले आत्मा के भयंकर नुकसान, गुणों का घात, प्रीति, विनय, नम्रता, मृदुता, सहनशीलता, क्षमा, सरलता, जीवन की पवित्रता, आराधकता आदि सद्गुणों का विनाश, भविष्य में दुःख, दुर्भाग्य, दुर्गति आदि संकट को ज्ञपरिज्ञा से जान-देखकर
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