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________________ ॐ ४४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 “गीत विलाप ने सम गणे, नाटक कायक्लेश, मारा लाल। आभूषण तनुभार छे, भोग ने रोग गणे छे, मारा लाल। चतुर सनेही सांभलो।"१ इसका भावार्थ यह है कि वह गीत को विलाप के समान, नृत्य को काया की विडम्बना, आभूषण को शरीर पर बोझरूप तथा भोग को रोग के समान समझता "आशय यह है कि जैसे विलाप, कायक्लेश, कायभार और रोग पर रागादि नहीं होते, उसी प्रकार उसे गीत आदि पर रागादि कषायभाव नहीं होते थे।२ . .. भरत चक्रवर्ती की कषायों से निर्लिप्तता का रहस्य तात्पर्य यह है कि बाहर से सांसारिक या पौद्गलिक भौतिक प्रवृत्ति करते हुए भी अन्तर में विरक्ति, अनासक्ति और उदासीनता की निर्मलता रहे, तभी अकषायसंवर की साधना सार्थक हो सकती है। __ भरत चक्रवर्ती को छह खण्ड की राज्यऋद्धि मिली, विशाल सेना, कोष, नौ निधान, चौदह रत्न आदि की समृद्धि मिली, ३२,000 देशों को राजाओं पर आधिपत्य मिला, फिर भी वे इन सबसे निर्लिप्त रहे। क्या उनमें सत्ता, वैभव, समृद्धि आदि का गर्व नहीं आया? क्या उनमें इन सबके होने से भोगों में लिपटने और फँसने का प्रमाद नहीं आया? तीव्र क्रोधादि कषायों से वे कैसे दूर रहे? यही तो खूबी है-सम्यग्दृष्टि आत्मा की। ___ सम्यग्दृष्टि के जीवन की यही विशेषता है कि वह भोगावली कर्मवश बाहर से उसके पास सत्ता, समृद्धि और भोग सामग्री की प्रचुरता या प्रवृत्ति दिखाई देती है, परन्तु अन्तर से इन सबके प्रति उसमें आसक्ति, रागभाव या अन्धता नहीं होती। इनमें फँसने पर जीव (आत्मा) की प्रतंत्रता बढ़ती है, यह सोचकर विवेकी सम्यग्दृष्टि इनके प्रति आकर्षित या आसक्त नहीं होता और न ही इनके होने पर गर्व या अहंकार करता है। तात्पर्य यह है कि बाहर से रागादि कषायों की सांसारिक, भौतिक प्रगति या प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होते हुए भी अन्दर से अन्तःकरण को विकृत करने की बात उनमें नहीं थी। १. 'दिव्यदर्शन', दि. ८-९-९० के अंक में विजयभुवनभानुसूरीश्वर जी म. के प्रवचन से __ भाव ग्रहण, पृ. १० २. वही, दि. ८-९-९0 के अंक से भाव ग्रहण ३.. वही, दि. १-८-९० के अंक से भाव ग्रहण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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