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________________ • अकषाय-संवर: एक सम्प्रेरक चिन्तन ३७ आलोचना, पश्चात्ताप, प्रायश्चित्त आदि के द्वारा अपना शुद्धीकरण करके अपना अध्यवसाय शुद्ध कर लेता है तो अशुभ कर्मों को शुभ कर्म में परिणत कर सकता है। जैसे मगध-नरेश श्रेणिक ने हिरणी का वध करके अहंकार किया था, फलतः नरक का निकाचित बन्ध कर लिया था, किन्तु बाद में अनाथी मुनि एवं भगवान महावीर की उपासना से उसके पूर्व अध्यवसायों में भारी परिवर्तन होने के कारण अनन्तानुबन्धी कषाय का क्षय होने से क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया था। फलतः भविष्य में नरक से आयुष्य पूर्ण होने पर वह मनुष्यलोक में आकर तीर्थंकर बनेगा। , फिर भी प्रश्न यह होता है कि कषाय-विजय की साधना में प्रवृत्त हुए, जिस साधक ने पूर्व-पूर्व तीव्र कषाय का क्षय, क्षयोपशम या उपशम किया है, उसे कालान्तर में सहसा उग्र (तीव्र) कषाय क्यों आ घेरता है ? इसका कारण यह है कि जब ऐसा साधक कुछ शास्त्राभ्यास कर लेता है, प्रवचनपटु हो जाता है अथवा उत्कट बाह्य तप करने लग जाता है अथवा कोई पद, प्रतिष्ठा या प्रसिद्धि पा लेता है अथवा उसके पास अनुयायी वर्ग का जमघट होने लगता है, तब मोहकर्मवश वह अपने आप को आध्यात्मिक गुरु एवं पहुँचा हुआ साधक समझने लगता है । फिर अहंकारवश अपने गुरु की भी अविनय - आशातना, तिरस्कार, अवमानना आदि करने लगता है, अपने जाति, कुल, ज्ञान, तप आदि का मद करके उन्मत्त होकर बात-बात में दूसरों का अपमान करने लगता है, उनको नीचा, अज्ञानी या अज्ञ कहकर तिरस्कृत करता रहता है। बार-बार क्रोध करके दूसरों को डाँटताफटकारता रहता है। अभिमानवश दूसरे धर्म-सम्प्रदाय, मत-पंथ का या उनके अनुगामी साधु-श्रावकवर्ग की निन्दा, अवगुणवाद, ईर्ष्या, द्रोह आदि करने लगता है; दूसरों के साथ माया-कपट करके या दूसरों से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा में दूसरों को नीचा दिखाकर स्वयं ऊँचा, क्रियाकाण्डी, क्रियापात्र बनने का दम्भ, दिखावा, बाह्याडम्बर करने लगता है अथवा वह अनुयायी या शिष्य - शिष्या बढ़ाने के लोभ में पूर्व में बनाये हुए गुरु को अथवा पूर्व गुरु द्वारा दिये गए सम्यक्त्व को बदलाकर अपने या अपने सम्प्रदाय - मत-पंथ की गुरु-धारणा या समकित देने का या बरगलाकर अथवा यंत्र-मंत्र-तंत्रादि के थोड़े से चमत्कार बतलाकर लोभवश • अपने शिष्य - शिष्या या अनुगामी भक्त भक्ता बढ़ाने का उद्यम करता है। इस पुरुषार्थ में अपनी आत्म-साधना, आत्म-शुद्धि या अकषाय-संवर में विक्षेप पड़ता है, इसकी उसे तनिक भी परवाह नहीं होती । फिर उसे अपनी प्रसिद्धि, प्रशंसा एवं कीर्ति की धुन लगती है, लोभरूपी कषाय का शिकार होकर वह क्या करता ? इसे ‘दशवैकालिकसूत्र' के शब्दों में देखिये Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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