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ॐ ३६ ॐ कर्मविज्ञान :भाग ७ ॐ
वालों (पन्थ, मार्ग, सम्प्रदाय) की प्रशंसा और दूसरों के वचन (मत) आदि या मत पन्थ वालों की निन्दा (गर्हा, घृणा) करने में ही अपना पाण्डित्य देखते हैं, वे वास्तव में (एकान्तवाद के मतानहरूप मिथ्यात्व के कारण) जन्म-मरणरूप संसार के बन्धन में दृढ़ता से जकड़े हुए हैं।" कषाय के कुचक्र में फँसा हुआ साधक
वस्तुतः कषायभाव चारित्रमोहनीय के उदय से होता है; इसीलिए उत्कृष्ट साधु के लिए 'बृहत्कल्पभाष्य' में कहा गया है-"अकषाय (कषायरहितता = वीतरागता) ही शुद्ध चारित्र है। अतः (तीव्र) कषायभाव रखने वाला संयमी नहीं होता।" सच्चे. श्रमण का लक्षण 'प्रवचनसार' में इस प्रकार किया गया है-"जो कषायरहित है. इस लोक से निरपेक्ष है, परलोक में भी अप्रतिबद्ध (अनासक्त या निदानरहित) है तथा उपयोग (विवेक) युक्त होकर आहार-विहार की चर्या करता है, वही सच्चे माने में श्रमण है।" 'बृहत्कल्पभाष्य' में कहा गया है-"ज्यों-ज्यों क्रोधादि कषायों. की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों चारित्र की हानि होती है।" क्रोधादि कषायों की तीव्र वृद्धि से कितनी आध्यात्मिक हानि होती है? इसे स्पष्ट रूप से व्यक्त करते हुए 'निशीथभाष्य' में कहा गया है-“देशोन (थोड़े-से कम) कोटिपूर्व तक की (कषायमुक्ति की) साधना के द्वारा जो चारित्र अर्जित किया है, उसे वह अन्तर्मुहूर्त भर के प्रज्वलित (उग्र) कषाय से नष्ट कर देता है या नष्ट हो जाता है।"२ प्रारम्भ में कषायमुक्ति (सर्वकर्ममुक्ति) की साधना में प्रवृत्त, किन्तु बाद में मोहकर्म के उदयवश जो कषायवृद्धि की ओर झुक जाता है, ऐसा होने पर उसकी पूर्वकृत कषाय के क्षयोपशम या उपशम की साधना यद्यपि व्यर्थ नहीं जाती, किन्तु उसका अध्यवसाय पहले की अपेक्षा अशुभ हो जाने से शुभ कर्म का अशुभ कर्म में अपवर्तन हो जाता है, अर्थात् उसके अशुभ अध्यवसाय के कारण पूर्वबद्ध स्थितिबन्ध तथा रसबन्ध में परिवर्तन हो जाता है। अब उग्र कषाय होने के कारण पहले का मन्द कषाय नष्ट हो जाता है। किन्तु कालान्तर में यदि वह साधक १. सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं।
जे उ तत्थ विउस्संति, संसारं ते विउस्सिया॥ -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १, उ. २ २. (क) अकसायं खु चरित्तं; कसायसहिओ न संजओ होइ। -बृहत्कल्पभाष्य २७१२ (ख) इहलोग-निरावेक्खो, अपडिबद्धो परम्मि लोयम्मि। जुत्ताहार-विहारो रहिद-कसाओ हवे समणो।।
-प्रवचनसार ३/२६ (ग) जह कोहाइ-विवड्ढी, तह हाणी होइ चरणे वि।
-बृहत्कल्पभाष्य २७११ (घ) जं अज्जियं चरित्तं देसूणाए वि पुव्वकोडीए। तं पि कसाइय मेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेणं॥
-निशीथभाष्य २७९३
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