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ॐ अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन * ३५ *
लोभवश या रोषवश उन्हें भी मार डालने में संकोच नहीं करता। अपने माने हुए सम्प्रदाय, पन्थ, मत या मार्ग से भिन्न सम्प्रदाय आदि वाले साधुवर्ग या गृहस्थवर्ग के प्रति कषायोन्मत्त होकर साम्प्रदायिक तीव्ररागवश कई व्यक्ति रोष, द्वेष, वैर-विरोध, निन्दा, वदनामी, अपमान, सम्यक्त्व-परिवर्तन, अनुयायीवृद्धि के लोभ में आकर वहकाने-फुसलाने आदि कतिपय कषायों का धड़ल्ले से सेवन करते हैं।
साधकों के जीवन में कषायों का
जबर्दस्त घेराव और परिणाम और तो और, उच्च कोटि के कहलाने वाले कतिपय साधक मुनि श्रमण, साधु और आचार्य तक इन कषायों का दुष्परिणाम जानते हुए भी अपने से भिन्न सम्प्रदाय वाले साधु-श्रावकवर्ग की निन्दा, बदनामी या तीखी कटु आलोचना, दोषारोपण आदि करने से नहीं चूकते। भगवान महावीर के द्वारा 'सूत्रकृतांगसूत्र' में कथित अमृतोपम वचनों को भी वे ठुकराकर सोचते हैं, हम उनकी आज्ञा का पालन करते हैं। भगवान महावीर ने ऐसे कषायात्मा साधकों के लिए कहा है
"जैसे साँप अपनी त्वचा (केंचुली) को छोड़ देता है, वैसे ही श्रेयस्कामी मनि (साधु) भी आवरणरूप अष्टविध कर्म-रज-मल का त्याग करता है, ऐसा जानकर अहिंसाव्रती (माहन) संयमी मुनि कर्मबन्ध के कारणभूत जाति, कुल (सम्प्रदायादि गच्छ, गण, संघ आदि), बल, रूप, लाभ, श्रुत, तप (क्रिया आदि व बाह्याभ्यन्तर तप), ऐश्वर्य आदि का मद (अहंकार या गर्व) नहीं करते तथा वे दूसरों की निन्दा (इंखिणी) नहीं करते; क्योंकि (मानकषायवश) दूसरों की निन्दा कल्याण का नाश करती है। जो दूसरों का तिरस्कार (परिभव) करता है, वह चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करता है। अर्थात् वह (मानकषायी साधक) दीर्घकाल तक जन्म-मरण के चक्ररूप संसार में भटकता रहता है अथवा पर-निन्दा (इंखिणी) भी पापों (पापकर्मों) की जननी है, यह जान, र मुनिवर किसी प्रकार का अहंकार (मद) नहीं करता।"१ इसी प्रकार “जो साधक (मानकषायवश) अपने-अपने मत या मत
१. (क) तयसं व जहाइ से ग्यं. इति संखाय मुणी ण मज्जई।
मोयन्नतरेण माहणे. अह सेयकरी अन्नेसी इंखिणी।। (ख) जो परिभवइ परं जणं, संसारे परिवत्तई महं। अदु इंखिणिया उ पाविया, इति संखाय मुणी ण मज्जई॥
-सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. २, उ. २
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