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* ३४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७*
की आदत पड़ने से मनुष्य दिनानुदिन नीचे गिरता (पतित होता) जाता है। वह लोगों की दृष्टि में, समाज की दृष्टि में और कर्मसत्ता की दृष्टि से नीचे गिरता जाता है, अधोगमन करता जाता है। मान-अहंकार-मद या गर्व करने की आदत से भी मनुष्य अधमगति में, अधम कक्षा में अथवा अधोगति (दुर्गति) में पहुँच जाता है। पद-पद पर, चलते-फिरते बार-बार माया-कपट करने की आदत से मनुष्य की सद्गति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है अथवा सुगति या आत्मिक प्रगति का रास्ता बंद हो जाता है और लोभ करने से इस लोक और परलोक दोनों में ही अनेक प्रकार का (नाना दुःखों का) भय खड़ा हो जाता है।" अतः कषाय चाहे जो हो, उसके सेवन से नुकसान के सिवाय लाभ तो है ही नहीं। अथवा वह कवि कालीदास के शब्दों में-"थोड़े-से लाभ के लिए बहुत-सी हानि चाहने वाला मानव मुझे विचारमूढ़ प्रतीत होता है।''१ एक आचार्य ने तो यहाँ तक कह दिया है कि “यदि साधक का कषाय उपशान्त हो जाय और वह अनन्त पुण्यशाली हो, तो भी (उस उपशान्ति के बाद भी) फिर से प्रत्यवाय (कषायरूप विघ्न) आ सकता है। इसलिए थोड़ा-सा भी कषाय शेष रहे, तब तक तुम्हें उसका विश्वास नहीं करना चाहिए।" (न मालूम वह पुनः किसी निमित्त से आ धमके।)२ वातादि विकारों से उन्मत्त की अपेक्षा कषायों से अधिक उन्मत्त
अनुभवी वैद्य कहते हैं-मनुष्य उन्मत्त (पागल) होता है वात रोग से, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टिप्रधान 'भगवती आराधना' में कहा गया है-"वात, पित्त आदि विकारों से मनुष्य वैसा उन्मत्त नहीं होता, जैसा कि कषायों से होता है। वास्तव में कषायों से उन्मत्त ही उन्मत्त है।''३ कषायों का तीव्र प्रवाह जब अबाधगति से बहने लगता है, तब मनुष्य अपने सजातीय मानव को भी अहंकारवश ठुकरा देता है, इतना ही नहीं, अपने स्वजनों, कुटुम्बीजनों और स्नेहीजनों का भी तिरस्कार कर देता है। दूसरे प्राणियों की भी हत्या कर डालता है। छल-कपट करके स्वजनों, सजातीय मानवों को भी ठग लेता है, उनके साथ भी वंचना करता है।
१. (क) “पाप की सजा भारी, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. ५७१ (ख) अहे वयंति कोहेणं, माणेणं अहमा गई।
माया गई-पडिग्घाओ, लोभाओ दुहओ भयं।। -उत्तराध्ययन, अ. ९, गा. ५४ (ग) अल्पस्य हेतोर्बहु हातुमिच्छन् विचारमूढः प्रतिभासि मे त्वम्। -रघुवंश-महाकाव्य, सर्ग २ २. जइ उवसंत-कसाओ लहइ अणंत-पुण्णोवि पडिवायं। ___ न हु भे वीससियव्वं, थोवे वि कसाय-सेसम्मि।। ।
-'जैन स्वाध्याय-सुभाषितमाला, भा. २' से भाव ग्रहण, पृ. १७ ३. होदि कषाय-उम्मत्तो, तधाण पित्त-उम्मत्तो।
-भगवती आराधना १३३१
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