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________________ * अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन 8 ३३ 8 कषाय त्याग से परम लाभ जैसे कि कषाय के प्रत्याख्यान (त्याग) से परम लाभ बताते हुए भगवान महावीर ने कहा-“कषाय (क्रोध-मान-माया-लोभ) के प्रत्याख्यान (त्याग) से जीव (आत्मा) वीतरागभाव को प्राप्त कर लेता है। वीतरागभाव को प्राप्त जीव सुख और दुःख में समभावी हो जाता है।''१ कषाय त्याग से साधक को कितना महान् लाभ है ! कषायों पर विजय कैसे प्राप्त हो ? कषायों पर विजय पाने से लिए ज्ञानी भगवन्तों ने अनेक उपाय बताए हैं। उन उपायों को आजमाया जाए तो निःसंदेह कषायों से छुटकारा आसानी से प्राप्त हो सकता है। देखिये-'दशवैकालिकसूत्र' में कषाय-विजय का निर्देश इस प्रकार है"उपशमभाव (शान्ति) से क्रोध को जीते, मान को मृदुता-नम्रता (विनय) से जीते, माया को ऋजुता (सरलता) से जीते और लोभ को सन्तोष से जीते।"२ इस प्रकार चारों कषायों को उपशम आदि चार भावों से अच्छी तरह आसानी से जीता जा सकता है। कषायों से अधोगति तथा अल्पलाभ : अनेक गुणी हानि फिर भी आश्चर्य इस बात का है कि मनुष्य जैसा विचारशील प्राणी भी किसी भी कषाय को अपनाता है, तब लाभ देखकर ही ऐसा करता है। वह मन में सोचता है, मुझे अमुक कषाय के करने से अमुक लाभ मिलेगा। क्रोध, रोष और आवेश करने से, गुस्सा करने से मुझे अमुक वस्तु मिल जाएगी। अहंकारवश रौब जमाने से, डाँट-फटकार से अमुक व्यक्ति मेरे सामने झुक जाएगा, मेरी गुलामी, चापलूसी या खुशामद करेगा, मेरी बात मान जाएगा। माया-कपट करके अमुक व्यक्ति को ठगकर मालामाल हो जाऊँगा। लोभ और स्वार्थपूर्ति किये बिना मेरा व्यवसाय चलेगा कैसे? लोभवश तस्करी, भ्रष्टाचार, चोरी आदि करके धन से तिजोरी भर लूँगा। इस प्रकार अदूरदर्शी व्यक्ति कषायों से तत्कालीन क्षणिक लाभ उठाने का प्लान बनाता है और फायदा उठाने का प्रयत्न करता है। लेकिन उसे पता नहीं है कि इस क्षणिक लाभ के पीछे वर्षों तक नरकादि दुर्गतियों में सड़ना पड़ेगा, सैकड़ों दुःख उठाने पड़ेंगे। जैसे कि 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा है-“बार-बार क्रोध करने -उत्तराध्ययन २९/३६ १. कषाय-पच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणयइ। वीयरागभावपडिवन्ने वि य णं जीवे सम-सुह-दुक्खे भवइ॥ २. उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायामज्जवभावेण लोभं संतोसओ जिणे॥ -दशवैकालिक, अ.८, गा. ३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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