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३२ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
कषायों का आश्रय लेने पर संसार बढ़ेगा ही, घटेगा नहीं
जो व्यक्ति यह कहता है कि कषायों के बिना जीवन-व्यवहार चल ही नहीं सकता, वह दीर्घदृष्टि से यह सोचे कि संसार चलाने या जीवन-व्यवहार चलाने के लिए कषायों का आश्रय लेने पर क्या होगा? उसके कारण जन्म-मरणादिरूप संसार दिनानुदिन बढ़ता जाएगा। सौ गुना, हजार गुना या लाख गुना संसार बढ़ता जाएगा। फिर उस बढ़े हुए, बिगड़े हुए, आत्मा को असंख्य कर्म-लेप से लिप्त किये हुए लाखों वर्षों, लाखों जन्मों के संसार के कितने दुःख बढ़ जाएँगे? उन्हें भोगना तो उसी को पड़ेगा, जो पापकर्मों के बन्धन में डालने वाले कषायों को हँस-हँसकर अपनाता है। यह तो वही बात हुई-“गये थे आग बुझाने, लेकिन आग से जल गए।" इसलिए कषायों के सेवन से अनन्त संसार बढ़ाने के बदले कषायों का त्याग, उपशमन, दमन या निरोध करना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है, इसके सिवाय मुमक्ष साधक के लिए सर्वकर्ममुक्ति का, सर्वदुःखमुक्ति का और कोई विकल्प नहीं है। इसी में अकषाय-संवर साधक की बुद्धिमत्ता, विशेषता और दूरदर्शिता है। यही उभयलोक में लाभ का सौदा है। कषाय के निरोध या त्याग से आवृत आत्म-गुण प्रकट होंगे
कषाय के निरोध, उपशमन, दमन या त्याग से लाभ यह है कि पूर्वोक्त जिन आत्म-गुणों को कषायों ने रोका है, दबाया है, आवृत किया है, वे गुण उन-उन कषायों के हट जाने से उसी तरह प्रकट हो जाएँगे, जिस तरह सूर्य पर छाये हुए बादलों के हट जाने से सूर्य का प्रकाश चारों ओर पूर्णतया फैल जाता है। आवरण के हट जाने पर आच्छादित वस्तु प्रगट दिखाई देने लगती है। कषाय भी स्व-जनित कर्मों के रूप में आत्मा पर आच्छादित है-आवृत है। इन कषायों को संवर-निर्जरा द्वारा हटा देने से तज्जनित कर्म हट जाएँगे, फिर आत्मा में निहित अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त यथाख्यातरूप चारित्र, अनन्त आत्मिक सुख और अनन्त आत्म-शक्ति आदि आत्मा के निजी गुण अंशतः प्रगट होने लगेंगे और जिस दिन कषायों का आवरण सर्वथा हट जाएगा, उस दिन आत्मा अपने निजी गुणों से परिपूर्ण, सर्वथा शुद्ध, बुद्ध, सर्वघातिकर्ममुक्त वीतराग सर्वज्ञ बन जाएगी। आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में अवस्थित हो जाएगी। इस दृष्टि से कषायों का निरोध, उपशमन या त्याग करने से यहाँ भी लाभ है, आगे (परलोक में) भी लाभ है और कषायों के सर्वथा त्याग से समस्त (आत्म-गुण) घातिकर्मों का क्षय होने से वीतरागता और समस्त कर्मों के क्षय होने से मुक्ति का परम लाभ भी है।
१. 'पाप की सजा भारी, भा. १' से भाव ग्रहण, पृ. ५३४
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