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________________ अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन ३१ उपद्रवकर्त्ता के प्रति प्रतिक्रियावश रोष-द्वेषादि करना या शाप - वरदान देना अभीष्ट होता तो वे वीतराग नहीं कहला सकते थे, न ही अनन्त आत्म-शक्ति और अनन्त आत्मिक आनन्द (सुख) के धनी कहला सकते थे। क्योंकि कषाय तो अनन्त-ज्ञानादि आत्मिक गुणों को आवृत, कुण्ठित एवं सुषुप्त कर देता है। कषायों के बिना भी जीवन व्यवहार चल सकता है इसलिए अकषाय-संवर के साधक को दीर्घदृष्टि से इन सब पहलुओं पर सोचकर निर्णय करना होगा–“ आत्मा के महान् अन्तरंग शत्रुरूप क्रोधादि कषायों, आत्मा को स्वभाव से च्युत करने वाले कषाय-विभावों, आत्मा को दुर्गति में ले जाने वाले तथा अनेक प्रकार के शारीरिक-मानसिक रोग, कष्ट, सन्ताप देने वाले कषायों से वास्ता रखना है या इनसे दूर रहना है ? क्या कषायों को अपनाये बिना तुम्हारा जीवन-व्यवहार नहीं चल सकता ? क्या तुम कषायों के बिना संसार में जी नहीं सकते ? अन्तर की गहराई में उतरकर ठंडे दिल-दिमाग से सोचेंगे तो सूर्य के प्रकाश की तरह आपको स्पष्ट ज्ञात हो जाएगा कि सर्वकर्ममुक्ति का या संवरनिर्जरारूप धर्म का साधक कषाय के बिना अपना जीवन व्यवहार अच्छी तरह चला सकता है, कषायों के बिना संसार में सम्यक्रूप से जी सकता है। इस विश्व में अनेक व्यक्ति ऐसे हो गए हैं, जिन्होंने शान्ति, सन्तोष और धैर्य के साथ कषायों के बिना अपना जीवन-व्यवहार चलाया है, चलाते हैं और चला सकते हैं। कई * प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति में भी शान्त, मौन और कष्ट - सहिष्णु रहकर अपना शानदार जीवन व्यतीत करते हैं । उनकी आत्मा के अणु - अणु में यह सूत्र सम्यक् रूप से प्रविष्ट हो गया है कि कर्मों से वास्तविक मुक्ति कषायों से मुक्ति होने पर ही होती है, हो सकती है । ' कषायों से दूर रहने का स्वभाव बनाने पर ही जीवन की सार्थकता यदि अकषाय-संवर का आत्म- हितैषी साधक अपना स्व-भाव कषायों से रिक्त, मुक्त या दूर रहने का बना ले तो हर हालत में वह कषाय से दूर रह सकता है अथवा प्राथमिक अवस्था में मन्दकषायी बन सकता है। मनुष्य अपनी प्रकृति को जिस साँचे में ढालना चाहे, ढाल सकता है। कषायों से दूर रहने का स्वभाव बनाना चाहे तो बना सकता है और बखूबी अपना जीवन व्यवहार चला सकता है। १. (क) 'पाप की सजा भारी, भा. १' से भाव ग्रहण, पृ. ५३३ (ख) कषाय - मुक्तिः किल मुक्तिरेव । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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