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ॐ. ३८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ
“पूयणट्ठा जसोकामी माण-संमाण-कामए।
बहुं पसवई पावं, मायासल्लं च कुव्वइ।।". अर्थात् जो साधक पूजा-प्रतिष्ठा के फेर में पड़ा है, यश का भूखा है, मान-सम्मान के पीछे दौड़ता है, वह अनेक प्रकार से माया-शल्य (दंभ-दिखावा) करता हुआ, अत्यधिक पापकर्म करता है। कषायों का आक्रमण दसवें गुणस्थान तक होता रहता है ...
वैसे सैद्धान्तिक दृष्टि से सोचा जाए तो कषाय का आक्रमण दसवें गुणस्थान तक चलता है। दसवें गुणस्थान में जाकर संज्वलन का लोभ उपशान्त अथवा क्षीण हो जाता है। यद्यपि सातवें अप्रमत्त संयत गुणस्थान से कषायों का वेग अत्यन्त कम होने लगता है। फिर भी चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से कषाय-नोकषायों का दौर चलता रहता है। परन्तु चतुर्थ गुणस्थान में और उसमे आगे के गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं रहता, दर्शनमोहनीय की तीनों कर्मप्रकृतियाँ भी नहीं रहतीं। इसलिए चौथे गुणस्थान से मिथ्यात्व, अज्ञान और मूढ़ता से प्रेरित अनन्तानुबन्धी कषाय नहीं रहते, फिर भी अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन कषाय तो रहते ही हैं। अदूरदर्शिता, प्रमाद, असावधानी, अजागृति और प्रतिक्रिया की आदत, कषायवृत्ति के त्याग के प्रति अरुचि, लापरवाही या उदासीनता उस-उस छठे गुणस्थान तक के साधक के जीवन में कषाय तूफान उठाती रहती हैं। उसकी लेश्याएँ, वृत्तियाँ, संज्ञाएँ, अशुभ बनती जाती हैं और वह प्रमादवश कषाय का शिकार हो जाता है। कषायों के वशीभूत होकर वह अपनी आत्मा के प्रति तथा दूसरों के प्रति निष्ठुर, दयाहीन, घृणा-परायण, कठोर और क्षमाविहीन, मृदुता और ऋजुता से रहित बन जाता है।
वैसे एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के प्राणियों में क्रोधादि चारों प्रकार के कषाय तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम या मन्द या मन्दतर रूप में पाये जाते हैं। संसारी जीव हो और कषाय न हो, यह सम्भव नहीं। हाँ, इतना अवश्य है कि किसी में क्रोध अधिक है, किसी में मान अधिक है, किसी में माया और किसी में लोभ अधिक मात्रा में है। यदि किसी में ७० प्रतिशत क्रोध है तो दूसरे तीन कषाय १०-१० प्रतिशत हैं। इसी तरह मान, माया और लोभ का हाल है। लोक-व्यवहार में जो यह कहा जाता है कि पुरुषों में क्रोध और मान की मात्रा अधिक होती है
और स्त्रियों में माया और लोभ की, यह एकान्तरूप से यथार्थ कथन नहीं है। सभी १. दशवैकालिकसूत्र, अ. ५, उ. २, गा. ३७
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