SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ शीघ्र मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय : अविपाक निर्जरा ॐ ४८१ * और तप से रहित सम्यग्दृष्टि के सविपाक निर्जरा द्वारा उसी भव में, शीघ्र और सीधा मोक्ष नहीं हो सकता, जबकि पूर्वोक्त सम्यक्संवर और सम्यक्तप से युक्त सम्यक्दृष्टि के अविपाक निर्जरा द्वारा शीघ्र ही तथा कदाचित् उसी भव में मोक्ष हो सकता है। __यही कारण है दिगम्बर परम्परा में सविपाक निर्जरा को मोक्ष का अंग नहीं माना। उसका आशय यह है कि सम्यग्दृष्टि के द्वारा आंशिक मोक्ष, परम्परागत मोक्ष होगा, तब संवर तथा सम्यक्चारित्र या तप से युक्त निर्जरा होने से वह निर्जरा सविपाक न होकर अविपाक हो जाएगी। निष्कर्ष यह है कि सम्यक्तप, संवर या सम्यकचारित्र से रहित केवल सविपाक निर्जरा मोक्ष का अंग नहीं हो सकती। साधना के द्वारा सम्यक्त्व का भाव जगने पर मिथ्यात्व मोहनीय कर्म (भले ही आंशिक रूप से टूटता हो) टूटता है, साथ ही अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क (चारित्र मोहनीय) का क्षयोपशम, उपशम या क्षय हो जाने की स्थिति में चारित्र मोहनीय कर्म (भले ही आंशिक रूप से टूटता हो) टूटता है, ऐसी स्थिति में (आंशिक) चारित्र की उपलब्धि होने से अविपाक निर्जरा ही मोक्ष का अंग हो सकती है। सम्यक्त्वचारित्ररहित केवल सविपाक निर्जरा के द्वारा कर्मों को भोग-भोगकर पूरा किया जाना मोक्ष का अंग नहीं हो सकता, क्योंकि भोग-भोगकर निर्जरा तो अनन्त-अनन्तकाल से होती आ रही है। यदि कोरी सविपाक निर्जरा से मोक्ष होता तो कभी हो गया होता। कोरी सविपाक निर्जरा से केवल फल भोग-भोगकर कर्मों को तोड़ने से कर्मों का कभी अन्त नहीं हो सकेगा। मूल कर्म आठ हैं, उनके उत्तर भेद भी परिगणनीय हैं, किन्तु उनके उत्तरोत्तर भेद असंख्य हैं। असंख्यात योजनात्मक समग्र लोक को बार-बार खाली किया जाए और फिर बार-बार भरा जाए। असंख्य बार भरा जाए, इतना विस्तार एवं प्रसार है-एक-एक कर्म का। प्रत्येक कर्म की उत्कृष्ट स्थिति इतनी लम्बी है कि जिसे कल्पना के माध्यम से समझना भी आसान नहीं है। - आठ कर्मों में मोहनीय कर्म सबसे प्रबल है, उसकी उत्कृष्ट स्थिति ७० क्रोड़ाक्रोड़ सागरोपम की है। इसके अतिरिक्त ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति भी बहुत लम्बी है। इन सबको कोरी सविपाक निर्जरा के द्वारा एक जन्म में तो क्या अनन्त-अनन्त जन्मों में भी भोगा नहीं जा सकेगा। अकेले मोहनीय कर्म को ही लीजिए। जिस आत्मा ने मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध किया है, वह इसे केवल भोग-भोगकर कब तक भोगेगा? कल्पना कीजिए, यदि वह लाखों-करोड़ों जन्मों में भोग भी ले, तो भी उन जन्मों में नवीन कर्मों का बन्ध भी तो वह करता रहेगा। जितना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy