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________________ ॐ ४८२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ * कर्मफल भोगेगा, उससे कहीं अधिक नवीन कर्म बाँध लेगा। ऐसी स्थिति में बन्ध और भोग की कभी समाप्ति नहीं हो सकेगी।' कर्मविज्ञान का यह सिद्धान्त है कि सांसारिक छद्मस्थ जीव से सामान्यतया प्रतिसमय सात या आठ कर्मों का बन्ध होता रहता है। साधारणतया भोगासक्त आत्मा एक जीवन में जितना कर्मफल भोगता है, दूसरी ओर (भोगते समय समभावयुक्त संवर या चारित्र न होने से) नये कर्मों का बन्ध भी करता रहता है। मतलब यह कि एक ओर कर्मों को भोगने से उनकी अकामनिर्जरा होती रहे, किन्तु दूसरी ओर तीव्र गति से नये कर्मों का आगमन (आस्रव) और बन्ध चलता रहे, तब.. उन कर्मों का अन्त कब और कैसे आ सकेगा कोरी सविपाक निर्जरा से? एक सम्यग्दृष्टिविहीन व्यक्ति के समग्र जीवन की बात जाने दीजिए। प्रातःकाल से लेकर सायंकाल तक एक दिन के जीवन में भी वैसी एक आत्मा कितने अधिक नये कर्मों . का उपार्जन कर लेती है ? इसकी परिकल्पना करना भी छद्मस्थ के लिए बहुधा शक्य नहीं होता। कभी एक क्षण में इतने अधिक कर्मदलिकों का संचय एवं उपार्जन हो जाता है कि समग्र जीवन में भी सविपाक निर्जरा द्वारा उन्हें भोगा जाना और समग्र जीवन के कर्मों को भोगकर सर्वथा क्षय कर देना कथमपि संभव नहीं होता। अतः मिथ्यादृष्टि द्वारा कोरी सविपाक निर्जरा से कर्मों को भोग-भोगकर तोड़ना और उनके अन्त की आशा करना, क्या दुराशामात्र नहीं है ? जहाँ कर्मों का निर्गमन कम हो और आगमन अधिक हो, वहाँ उनके अन्त की कल्पना कैसे की जा सकती है ? . अतएव समस्त कर्मों का अन्त जहाँ कहीं भी और जिस किसी भी आत्मा ने किया है, तब उसने अविपाक निर्जरा से ही किया है, कोरी सविपाक निर्जरा से नहीं। अतः कर्मों का शीघ्र तथा कदाचित् उसी भव में, सर्वथा अन्त करने का सर्वश्रेष्ठ उपाय अविपाक निर्जरा ही है। अविपाक निर्जरा ही मोक्ष या सर्वकर्ममुक्ति का अचूक साधन है। जब तक अविपाक निर्जरा करने की क्षमता और योग्यता प्राप्त नहीं होती, तब तक मोक्ष दूर ही है। सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष की साधना के लिए अन्यान्य उपाय किये जाएँ या किये जाने का समय कदाचित् न हो, किन्तु अविपाक निर्जरा की साधना उसके लिए परमावश्यक है। अविपाक निर्जरा में सम्यग्दृष्टि जीव समिति, गुप्ति, परीषहजय, उपसर्ग-सहन, सम्यक्चारित्र एवं बाह्याभ्यन्तर सम्यक्तप, भेदविज्ञान, ज्ञाता-द्रष्टाभाव आदि के द्वारा जो पूर्वबद्ध कर्म संचित (सत्ता में) पड़े हैं, अभी उदय में नहीं आए हैं, अर्थात् अभी उनका विपाककाल नहीं आया है, उन्हें क्षणभर में नष्ट कर डालता है। यानी सम्यग्दृष्टि ज्ञाता-द्रष्टा आत्मा आध्यात्मिक तप, संवर, ध्यान, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग आदि की साधना से बद्ध कर्मों को उनके उदयकाल से पूर्व ही क्षय कर डालता है। जिस १. 'अध्यात्म प्रवचन' से भावांश ग्रहण, पृ. ९१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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