SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ॐ शीघ्र मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय : अविपाक निर्जरा ॐ ४७३ ॐ वाला काँटा। संसार के शुभाशुभ कर्मजनित पुण्य-पाप तथा तज्जन्य सुख-दुःख को भी इसी प्रकार त्याज्य समझना चाहिए, क्योंकि अध्यात्मदृष्टि से पुण्य और पाप दोनों ही काँटे हैं, दोनों ही प्रकार के कर्म त्याज्य हैं, दोनों का क्षय करके ही व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। जैसे कि 'उत्तराध्ययनसूत्र' के समुद्रपालीय अध्ययन में कहा गया है-“समुद्रपाल मुनि पुण्य और पाप (शुभ और अशुभ) दोनों ही प्रकार के कर्मों का क्षय करके (संयम में) निरंगन (निश्चल) तथा सब प्रकार से विमुक्त होकर समुद्र के समान विशाल संसार-प्रवाह को तैरकर अपुनरागमन स्थान (मोक्ष) में गए।” अतः अध्यात्मवादी मुमुक्षु साधक की दृष्टि में पापकर्मजनित संसार के दुःख ही त्याज्य नहीं हैं, अपितु पुण्यकर्मजनित संसार के क्षणिक एवं विनश्वर सुख भी अन्ततः त्याज्य हैं। कोई व्यक्ति एक ओर से संसार के दुःखों को तो छोड़ता रहे, किन्तु दूसरी ओर सांसारिक सुखों को बटोरता रहे तो वह संसार के दुःखों के बीजरूप सुखों को लेकर कर्मबन्ध तोड़ने के बजाय नये-नये अधिकाधिक बन्धनों से अपने आपको जकड़ता जाता है। वह मोहमूढ़ आत्मा जिन स्वर्ग-सुखों की रंगीन कल्पनाएँ करता है, उनका भी अन्ततः एक दिन अन्त अवश्य होता है। क्या अनन्त अतीत में चक्रवर्तियों और सम्राटों का, धनपतियों और नरपतियों का, देवेन्द्रों और नागेन्द्रों का सुख कभी स्थायी रहा है और अनन्त भविष्य में क्या वह स्थायी रह सकेगा? सांसारिक कामभोग तथा तज्जन्य सुख ज्ञानियों की दृष्टि में विष के समान है, वे कदापि अमृत-तुल्य नहीं हो सकते। . . सांसारिक सुख और दुःख दोनों ही बन्धन रूप हैं, अहितकर हैं निष्कर्ष यह है कि सांसारिक सुख की इच्छा और दुःख की. अनिच्छा दोनों बन्धनरूप हैं। संसार में जितना भी दुःख और क्लेश है, वह सब पूर्वबद्ध बन्धन का ही है। बन्धन कैसा भी क्यों न हो, वह यहाँ भी और परलोक में भी हितकर और सुखकर नहीं हो सकता। साधारण आत्मा कभी परमात्मा या बन्धनमुक्त __ हो नहीं सकता : एक भ्रान्ति परन्तु आश्चर्य तो वहाँ होता है, जो लोग बन्धन को बन्धन ही नहीं समझते; अथवा बन्धन को बन्धन समझकर निराश होकर बैठ जाते हैं कि हमारे भाग्य में आजीवन या अनन्तकाल तक बन्धन ही लिखा है, हम कदापि मुक्त नहीं हो सकते। १. (क) 'अध्यात्म प्रवचन' के आधार पर, पृ. ८८-८९ .. (ख) दुविहं खवेऊण य पुण्णपावं, निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के। तरित्ता समुदं व महाभवोघं, समुद्दपाले अपुणागमं गए। -उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २१, गा. २४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy