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________________ ॐ ४७४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 उनकी दौड़ अधिक से अधिक स्वर्ग तक है, वे बन्धन से सर्वथा मुक्ति की कल्पना भी नहीं कर पाते। ऐसे लोग यह प्रतिपादन करते रहते हैं कि साधारण आत्मा, जो बन्धनों में जकड़ा हुआ है, कभी उन बन्धनों को सर्वथा तोड़कर परमात्मा नहीं बन ... सकता। भक्त क्या कभी भगवान बन सकता है ? नौकर या गुलाम क्या कभी सेठ या. . मालिक बन सकता है? जो दीन है, हीन है; वह अनन्त भविष्य में दीन और हीन ही रहेगा। पतित है, वह भविष्य में भी पतित ही रहेगा, कभी पावन नहीं बन सकता ! : जो दर्शन, मन, पंथ और धर्म आत्मा के उत्थान और विकास के विषय में, भक्त से भगवान, आत्मा से परमात्मा बनने की प्रेरणा नहीं दे सकता, भव-बन्धन से छूटने का, कर्मों से सर्वथा मुक्त होने का कोई प्रखर सन्देश नहीं दे सकता, वह एक प्रकार : से अक्रियावादी है। आत्मा के मूल गुण और स्वभाव से अनभिज्ञ तथा तप, संयम, व्रत-प्रत्याख्यान के सुपरिणाम-कर्मक्षय के कारणभूत या दूसरे शब्दों में सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष के उपायरूप सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप के फल के प्रति स्वयं संदिग्ध और दूसरों को सन्देह में डालना है। उनके निष्प्राण, निराशाजनक और नास्तिकवादी विचारों को स्वीकार करने में कथापि लक्ष्यसिद्धि नहीं हो सकती। भयंकर बन्धन में जकड़ा हुआ आत्मा एक दिन सर्वथा बन्धनमुक्त हो सकता है जैनदर्शन का आदर्श उक्त विचारकों से भिन्न है। जैनदर्शन की स्पष्ट मान्यता है कि यह आत्मा अनन्त बार नरक के भयंकर दुःखों की आग में प्रज्वलित हो चुका है, तथैव अनन्त बार स्वर्ग के सुखों की बहार भी लूट चुका है, अनन्त-अनन्त बार मनुष्य, तिर्यंच, त्रस और स्थावर भी बन चुका है; यह सत्य है, किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि अभव्य आत्मा के सिवाय जो भव्य आत्मा अनन्तकाल से संसार में रहता आया है, जन्म-मरण करता आया है, वह अनन्त भविष्य में भी संसार में ही रहेगा, उसके जन्म-मरण का चक्र कभी समाप्त नहीं होगा। जैनदर्शन का स्पष्ट मन्तव्य है कि अभव्य आत्मा के सिवाय अन्य भव्य आत्माएँ अध्यात्म साधना के द्वारा सब प्रकार के बन्धनों से सदा के लिए मुक्त-सर्वकर्ममुक्त हो सकती हैं, जन्म-मरण के चक्र को एक दिन तोड़ सकती हैं।' बद्ध कर्म-बन्धन से मुक्त होना आत्मा का सहज स्वभाव है - इसका कारण यह है कि अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख (आनन्द) और अनन्त शक्ति आत्मा का सहज स्वभाव है, उस पर कषायादि विभावों तथा कर्म-पुद्गल आदि पर-भावों का आवरण आया हुआ है। आत्मा अपने ज्ञानस्वभाव के द्वारा चिन्तन और अनुभव कर सकता है। बुरे चिन्तन का जब बुरा १. 'अध्यात्म प्रवचन' के आधार पर, पृष्ठ ८६-८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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