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४७२ कर्मविज्ञान : भाग ७
तिर्यञ्चलोकं में और कभी नरकलोक में जाता - आता रहता है। पुण्य-पाप की हानि-वृद्धि के कारण कभी देवयोनि में तो कभी मनुष्ययोनि में अथवा कभी पशु-पक्षी और कीट-पतंगों की योनि में तथा कभी नरकयोनि में जन्म-मरण करता रहता है। इस प्रकार कुछ दार्शनिकों ने आत्मा को सदैव संसार में परिभ्रमण करते रहने के विविध स्थान अवश्य बताये, किन्तु उन्होंने इनसे ऊपर उठकर, संसार से मुक्त होकर सर्वकर्ममुक्तिरूप मोक्ष, अपवर्ग एवं निर्वाण की प्ररूपणा या परिभावना नहीं की। वे पुण्य-पाप से परे, सर्वथा शुद्ध आत्म-स्वरूप में अवस्थिति की प्ररूपणा नहीं कर सके। उन्होंने आत्मा के ऊपर विविध कर्मों के आवरणों का तो विचार किया, किन्तु इन आवरणों से मुक्त आत्मा के शुद्ध, निर्विकल्प निराकार, निरुपाधिक सर्वकर्ममुक्त स्वभाव स्वरूप और स्वगुण का विचार नहीं कर पाये ।' केवल नरक में जाना ही बन्धन नहीं, स्वर्ग में जाना भी बन्धन है
ऐसे दार्शनिकों का लक्ष्य स्वर्ग है । उनकी प्रत्येक प्रवृत्ति कामनामूलक है । भले ही वह अशुभ कामनामूलक न हो, पापजनक न हो, परन्तु शुभ कामनामूलक पुण्यजनक तो है ही । पुण्य से प्राप्त होने वाला स्वर्ग भी, पाप से प्राप्त होने वाले नरक,. तिर्यञ्च की तरह अन्ततः संसार ही है । अध्यात्मशास्त्र यह कहता है कि केवल नरक में जाना ही बन्धन नहीं है, स्वर्ग में जाना भी बन्धन ही है । किसी अपराधी के पैरों में लोहे की बेड़ी के बदले सोने की बेड़ी डाल दी जाये तो, दोनों में विवेकदृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही जगह बन्धन है, आत्मा की स्वतन्त्रता दोनों ही अवस्थाओं में नहीं रह पाती । स्वर्ग और नरक दोनों प्रकार के ( शुभाशुभ कर्मों के) बन्धनों को तोड़ना ही मोक्ष है, जो आत्मा का सहज स्वभाव है। उपनिषद्काल के दौरान तथा उसके पश्चात् वैदिक तत्त्वचिन्तकों का ध्यान भी इस ओर गया. कि जिस प्रकार (पापकर्मजनित) दुःख और क्लेश त्याज्य है, उसी प्रकार ( पुण्यकर्मजनित) सुख (सांसारिक अथवा वैषयिक सुख) और भोगविलास भी त्याज्य है।
मोक्ष के लिए पाप की तरह पुण्य भी,
तज्जनित सुख भी त्याज्य है
मान लो, किसी व्यक्ति के पैर में काँटा लग गया और वह पीड़ा के मारे छटपटाता है, उस समय दूसरे व्यक्ति ने किसी शूल ( तीखे काँटे, पिन या सुई की नोंक) से उसके पैर में लगे हुए काँटे को निकाल दिया । काँटा निकलने पर वह यदि यह कहे कि इस शूल ने मेरे पैर में चुभकर काँटे को निकाला है और मेरी पीड़ा दूर कर दी है, इसलिए मैं तो शूल को पैर में ही चुभाए रखूँगा, तो यह उसकी मूढ़ता ही कही जायेगी । मुमुक्षु और आत्मार्थी विवेकशील आत्मा की दृष्टि में काँटा निकालने वाला शूल भी उसी प्रकार त्याज्य है, जिस प्रकार पैर में चुभने
१. अध्यात्म प्रवचन (उपाध्याय अमर मुनि जी ) के आधार पर, पृ. ८६-८७
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