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* भेदविज्ञान की विराट् साधना ४६५
आचरण है। यों कभी मत सोचो कि मेरी आत्मा कमजोर है, अशक्त है, दुर्बल है, दूषित है, कर्म से मलिन है, वह शरीर और मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि शरीर के सैन्यदल के चंगुल से कैसे मुक्त या शिथिलबन्ध हो सकेगी ? 'सामायिक पाठ' में आत्मा को अनन्त शक्तिमान् और अपने आप में निर्दोष, निर्मल बताया है, उसके समक्ष शरीरादि जड़ पदार्थों की कोई शक्ति नहीं है | शरीरादि में जो कुछ भी शक्ति है, वह आत्मा की ही है | शरीर, मन आदि जड़ पदार्थों में अपनी कोई शक्ति नहीं है । शरीरादि में अपनी कोई शक्ति होती तो मुर्दा शरीर में, आत्मा के निकल जाने के बाद भी होती । अतः आत्मा अपनी अनन्त शक्ति सम्पन्नता और दोषरहितता ( शुद्धता) को भूलकर जो देहाध्यास में फँसी है, उसे शरीरादि से भिन्न पृथक् करना है, भेदविज्ञान के पूर्वोक्त चिन्तन से उसे शरीरादि के मोह-ममत्व से निकालना है। ऐसा करने के लिए देहभाव से ऊपर उठना है, आत्म-भाव में स्थित होना है।
मन से पर भावों से आत्म- द्रव्य का सम्बन्ध तोड़ना ही भेदविज्ञान है
स्पष्ट शब्दों में कहें तो भेदविज्ञान में समस्त पर भावों के प्रतीक इस शरीर से अपना तादात्म्य-सम्बन्ध या मोह - ममत्व सम्बन्ध छोड़ना है। एक आचार्य ने शरीरादि समस्त पर-द्रव्य और आत्मा को हृदय की गहराई से पृथक्-पृथक् समझकर भेदविज्ञान के विषय में 'समयसार' की आत्म- ख्याति टीका में कहा गया है( शरीरादि) पर - द्रव्य और आत्म-तत्त्व का कोई भी सम्बन्ध नहीं है, फिर उनमें कर्त्ता-कर्म-सम्बन्ध कैसे हो सकता है ?' अतः शरीरादि पर भावों से आत्मा के तादात्म्य या एकत्व-सम्बन्ध की भ्रान्ति, माया, अविद्या या अध्यास को अथवा शरीरभाव को उपर्युक्त चिन्तन की रोशनी में तोड़ना ही भेदविज्ञान का आचार है ।
• ऐसे भेदविज्ञान का दीपक अन्तरात्मा में जल जाने पर उसके प्रकाश में आत्मा स्वयं शरीरादि से अपने पार्थक्य, तटस्थ या सम्बन्धरहित भाव में स्थिर हो जाएगी ।
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भेदविज्ञान - साधक पर भावों से बचकर संवर लाभ करता है।
जब शरीरभाव से या देहाध्यास से ऊपर उठने की वृत्ति प्रवृत्ति सहज हो जाएगी, तब किसी सुन्दर स्त्री को देखकर कामुकता का, मनोहर दृश्य को देखकर मोह का, किसी मनोज्ञ कर्णप्रिय संगीत को सुनकर आसक्ति का, किसी मनोज्ञ . स्वादिष्ट खाद्य-पेय वस्तु को देखकर खाने-पीने के लोभ का, किसी भीनी-भीनी सुगन्ध को पाकर सूँघ लेने की लिप्सा का अथवा मन में लालसा, तृष्णा, आकांक्षा, भय, अहंकार, मद, माया, लोभ आदि का या फिर वचन से इस प्रकार के विकारों
१. नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्याऽत्मद्रव्ययोः ।
कर्मकर्तृत्व-सम्बन्धाभावे. तत्कर्तृता कुतः ॥
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- समयसार आत्मख्याति टीका
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