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________________ ॐ ४६६ * कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ से युक्त उद्गार निकालने का विचार आए तो भेदविज्ञानी साधक तत्काल सँभल जाए और तत्त्वज्ञानपूर्वक सोचे कि क्या ये आत्मा के निजी गुण हैं, स्व-भाव हैं, आत्मस्वरूपमय चिन्तन हैं ? यदि नहीं हैं तो ये मेरी आत्मा को स्व-भाव से, सद्गुणों से या स्वरूप से दूर ठेलने वाले पर-भाव हैं, विभाव हैं, पर-पदार्थ हैं। मुझे इनसे बचकर रहना है, अन्तर से इनसे दूर ही रहना है। ये मेरे नहीं हैं, मैं इनका नहीं हूँ। इस प्रकार का भाव-विश्लेषण करके भेदविज्ञान को क्रियान्वित कर लें। इससे अयोग-संवर की दिशा में आगे कदम बढ़ाने का अवसर मिलेगा। उत्कृष्ट भाव-रसायन आने से कर्मनिर्जरा भी हो सकती है। भेदविज्ञान की एक प्रक्रिया भेदविज्ञान के लिए प्राचीन प्रक्रिया यह है कि साधक देहभाव या देहाध्यास मिटाने के लिए देहभाव आने के अवसर पर चिन्तन करता है-“मैं देह नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ, मैं आँख, नाक, कान, जीभ, हाथ, पैर आदि भी नहीं हूँ, न ही बुद्धि, चित्त, अहंकार, कामभोग या काम-क्रोधादि हूँ। मैं तो सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा हँ।" जैसा कि शंकराचार्य ने कहा-“चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्।" जैनदृष्टि से भेदविज्ञान-साधक ऐसा विचार करे कि तन, मन, इन्द्रियाँ, अंगोपांग, चित्त, बुद्धि, अहंकार, ममकार, काम, क्रोध आदि पर-भाव हैं, ये आत्मा के स्वभाव नहीं हैं। ये आत्मा से भिन्न हैं।' किन्तु आत्मा इन्हें अभिन्न मानकर अनादिकाल से विभिन्न योनियों और गतियों में भटकती रही है। 'मैं शरीर नहीं हूँ', मेरा स्वभाव शरीर से भिन्न है। स्वभावभेद के कारण ही शरीरादि पर-भाव व्यक्ति को बाहर की ओर खींचते हैं। अगर तादात्म्य-सम्बन्ध शरीर के साथ न माना या जोड़ा जाए तो आत्म-भावों की प्रबलता या शरीरादि से भिन्नता के भावों की सघनता होगी और तब वह व्यक्ति को अन्दर से जोड़ेगी। ___ साबरमती आश्रम में प्रार्थना-स्थल पर महात्मा गांधी जी प्रार्थना करने बैठे थे। उस समय न मालूम कहाँ से एक सर्प आकर महात्मी गांधी जी की पीठ पर चढ़कर ओढ़ी हुई चादर के नीचे घुसने लगा। प्रार्थना सभा में बैठे हुए रावजीभाई पटेल आदि ने गांधी जी को हाथ से इशारा किया कि “बापू ! यह साँप आपको काट खाएगा। हम इसे पकड़ने का साधन लाते हैं।'' गांधी जी निर्भय और निश्चल होकर बैठे रहे। सोचने लगे-“यह काटेगा तो भले ही काटे, शरीर को ही काटेगा न? आत्मा को तो नहीं काट सकेगा।" संयोगवश वह साँप थोड़ी देर में अपने आप १. अन्नो जीवो, अन्नं इमं सरीरं। अन्ने खलु कामभोगा, अन्नो अहमंसि॥ -सूत्रकृतांग २/१/९, १३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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