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________________ ॐ ४६४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 मन, वचन आदि की आकांक्षाओं की पूर्ति करने में लगा रहता है। इनके साथ एकाकार होकर शरीरादि को मैं और मेरा कहने-समझने वाला अन्ततोगत्वा उनके । साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है, गहरा सम्बन्ध भी जोड़ लेता है। इसी तादाम्य सम्बन्ध के कारण वह पुनः-पुनः कर्मबन्ध करके जन्म-मरण की श्रृंखला को बढ़ाता जाता है, बार-बार नये-नये शरीर धारण करता रहता है। कितना भयंकर दुष्परिणाम है भेदविज्ञान से विरत एवं अनभ्यस्त होने का? अयोग-संवर और कषायमन्दता के लिए भेदविज्ञान __ अतः भेदविज्ञान के अभाव में आत्म-शक्ति एवं आत्म-विश्वास का भान न होने . . से व्यक्ति परीषहों, उपसर्गों, विपदाओं, कष्टों और संकटों के झंझावात आने पर एकदम डगमगा जाएगा, समभाव से शान्ति और धैर्यपूर्वक स्थिर नहीं रह पाएगा। वह शरीर का बचपन से लेकर बुढ़ापे तक का क्रमशः ह्रास, परिवर्तन एवं क्षीणत्व देखकर तथा विपदाओं के घोर बादल देखकर लड़खड़ा जाएगा। फलतः आर्त्त-रौद्रध्यान के वशीभूत होकर वह नाना पापकर्मों का बन्ध कर लेगा, जिनसे छुटकारा पाना उसके लिए बहुत ही कठिन होगा। अतः आत्म-शक्ति प्राप्त करने, : कर्मों के आने वाले प्रवाह को रोकने एवं समभाव एवं शान्तिपूर्वक संकट को सहने के लिए भेदविज्ञान का अभ्यास परम आवश्यक है। भेदविज्ञानी बड़े से बड़े संकट पर समभावपूर्वक विजय पा सकता है भेदविज्ञानी आत्मा को सर्वस्व मानकर उसकी अजर-अमरता एवं अविनाशिता पर दृढ़-विश्वासपूर्वक बड़े से बड़े संकट, दुःख, विपत्ति और कष्ट को समभाव से सहकर कर्मनिर्जरा कर सकता है। कैसी भी विषम परिस्थिति हो, विपरीत संयोग हो, भेदविज्ञानी समभावपूर्वक सामना कर सकता है, वह अनन्त तक समभाव पर दृढ़ रह सकता है। उसका भेदविज्ञानमूलक सूत्र यही होगा "देह भले मरे, मैं नहीं मरता। अजरामर पद मेरा।" ___ "देह विनाशी, मैं अविनाशी, देह जाए तो क्यों उदासी ?" भेदविज्ञानी का चिन्तन और आचरण इस प्रकार के चिन्तन-सूत्रों से आत्मा को भावित करता है तथा शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों तथा मन, वाणी, इन्द्रियों आदि के साथ जो पूर्व संस्कारवश तादात्म्य-सम्बन्ध या मैं और मेरे का सम्बन्ध बाँध या मान रखा है, उसे शिथिल करना तथा जहाँ-जहाँ अवसर मिले, यथाशक्ति सम्भव हो, वहाँ-वहाँ इस ममत्व-अहंत्व सम्बन्ध में जाने से मन को सहसा रोकना और यथाशक्य मुक्त करना, कम से कम सावद्य एवं अशुभ योगों से विरत करना ही भेदविज्ञान का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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