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* भेदविज्ञान की विराट् साधना ४६३
शान-शौकत, प्रतिष्ठा आदि के लिए अथवा अपनी मूँछ ऊँची रखने के लिए भी शरीरवादी देह और आत्मा को अभिन्न मानने, समझने और पूर्वाग्रह वाले लोग लड़ने-मरने के लिए तैयार हो जाते हैं। अपने माने हुए सम्प्रदाय, पंथ आदि पर आक्षेप करने वाले या कुछ कहने वाले के प्राण लेने पर उतारू हो जाते हैं, दूसरे की कही हुई सच्ची और हितकारी बात को भी वे स्वीकारने को तैयार नहीं होते । हिन्दू-सिक्ख, हिन्दू-मुसलिम या विभिन्न राजनैतिक पक्षों का इतिहास इस बात का साक्षी है कि वे लोग आत्मा की ओर से आँखें मूँदकर केवल शरीरासक्ति की या शरीरवादी की दृष्टि से ही विचार एवं कार्य करते हैं। ये सब खुराफात शरीर से सम्बन्धित परिकरों के प्रति अहंकार-ममकार के कारण होते हैं। पंथ, सम्प्रदाय, जाति, परिवार, प्रान्त, राष्ट्र, विभिन्न पक्ष आदि सब आत्मा से सम्बन्धित नहीं हैं, वे शरीर से ही सम्बन्धित हैं।
शरीर को आत्मा से अभिन्न मानने वाले लोगों का चिन्तन और कर्तृत्व जो व्यक्ति शरीर को आत्मा से अभिन्न मानते हैं, उनका एक लक्षण 'स्वयम्भू स्तोत्र' की टीका में बताया गया है - "इन्द्रिय और मन के विषय - सुखों में अथवा बालक, कुमार, युवक, वृद्ध आदि अवस्थाओं में 'यही मैं हूँ' (या यह मेरे हैं ) इस प्रकार की आत्म-द्रव्य के साथ अभेद-प्रतीति होना अभेदज्ञान है । " " 'ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य' आदि दर्शनों में भी इसी प्रकार का निरूपण है। शरीर मोटा या दुबला होने पर कहना कि मैं मोटा हूँ, मैं दुबला हूँ । शरीर की बालक, युवक, वृद्ध आदि अवस्थाओं को मैं बालक हूँ, युवक हूँ, वृद्ध हूँ, इस प्रकार जानना - मानना - कहना भी शरीरभाव को मजबूत करना है । शरीर के नाम, रूप आदि को लेकर अहंत्व-ममत्व करना, अहंकारभाव या हीनभाव प्रदर्शित करना भी देहभाव को सुदृढ़ करना है। शरीर को भूख, प्यास, रोग, पीड़ा आदि होने पर व्यवहार भाषा के अनुसार भले ही कहना पड़ता है, परन्तु अन्तर से ऐसा मानना - जानना कि मुझे भूख, प्यास, रोग, पीड़ा आदि हैं, यह भी शरीर और आत्मा की अभिन्नता का द्योतक भाव है। बार-बार अहंत्व-ममत्वयुक्त इन्हीं शब्दों को दुहराकर व्यक्ति शरीरभाव या देहाध्यास को सुदृढ़ करता जाता है। इसी भ्रान्ति, माया, अविद्या या अविवेक के कारण व्यक्ति आत्मा के वास्तविक स्वरूप कर्त्तव्य और लक्ष्य को भूलकर शरीर की मोहमाया, वासना और तृष्णा के आकर्षणों में फँस जाता है। फिर वह शरीरादि के निमित्त से काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि विकारों के प्रवाहों में बह जाता है। शरीर • और आत्मा को अभिन्न समझने वाले व्यक्ति का चिन्तन और कर्तृत्व प्रायः तन,
१. सुखादी बाल-कुमारादौ च स एवाहमिति आत्मद्रव्यस्याभेदप्रतीतिरभेदज्ञानम् ।
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- बृहत्स्वयम्भू स्तोत्र टीका
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