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________________ ७ २८ कर्मविज्ञान : भाग ७ ® अकषाय-संवर का तीव्र पराक्रम नहीं किया परन्तु मैं समझता हूँ, कषायों को हमने हटाने का, कषायों पर विजय प्राप्त करने का, कषायों को मन्द-मन्दतर करने का तीव्र पुरुषार्थ नहीं किया। कषायों की उत्पत्ति के कारणों का भलीभाँति पता लगाकर, उनको आत्मा से पृथक् करने का, दूर करने का यानी निर्जरा करने का या कषायों के निमित्त मिलने पर उनके तीव्र वेग को या आने की सम्भावना को एकदम रोककर अकषाय-संवर करने का तीव्र पराक्रम नहीं किया। क्या कषायों को अपनाए बिना काम नहीं चलता __ आजकल कई भौतिकता में रँगे हुए लोग कह दिया करते हैं-संसार मे रहना और कषायों से बचना कैसे सम्भव है? संसार-व्यवहार चलाने के लिये थोड़ा-बहुत कषाय तो करना लाजमी हो जाता है। थोड़ी आँखें लाल न करें तो पुत्र, पुत्री आदि हमारे सिर पर चढ़ जाएँ। थोड़ा गुस्सा न करें तो नौकर हमारी सुने ही नहीं। थोड़ा-सा गर्म होकर डाँट-फटकार न करें तो पत्नी भी आज्ञा की अवहेलना कर बैठती है। थोड़ा-सा मान, अभिमान न करें, जाति, कुल आदि का गर्व (गौरव) न करें तो समाज में हमें सब लोग हीन दृष्टि से देखने और अपमानित करने लग जाते हैं। थोड़ी माया (कपट) न करें तो पेट भरना भी मुश्किल हो जाए और लोभ के बिना तो हमारा व्यापार-धंधा भी चलना कठिन हो जाए। आजीविका के लिए, सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन को ठीक ढंग से चलाने के लिए, समाज में अपना दबदबा कायम रखने के लिए अहंकार (ग) और लोभ को अपनाना ही पड़ता है। कषाय आत्मा का स्व-भाव नहीं, विभाव है . ___ मानो कषाय को आधुनिक युग के मानवों ने अपना ‘स्वभाव' बना लिया है। जो कषाय आत्मा का स्व-भाव नहीं है, न कभी वह आत्मा का गुण, स्वभाव बना है, न बनेगा; उसी क्रोधादि कषाय को उन्होंने अपने स्व-भाव का अंग मान रखा है। जो कषाय आत्मा के शत्रु हैं, उन्हें अपने साथी के रूप में अपना रखा है। वस्तुतः ये क्रोध-मानादि कषाय आत्मा के स्वभाव नहीं, विभाव हैं। ये चारों कषाय कर्मजन्य अवस्थाविशेष हैं, कर्मों का स्व-भाव है, कर्मों की प्रकृति का अंग है, उसी का व्यवहार वे लोग आत्मा के स्वभाव के रूप में करने लग गए हैं। कषाय आत्मा का स्व-भाव = आत्मा का गुणधर्म होता तो आत्मा को ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति और चेतना के गुणधर्म = स्व-भाव पर आवरण क्यों डालता? उन आत्म-गुणों को कुण्ठित, आवृत और सुषुप्त क्यों करता? आत्मा कषायों से होने वाले कर्मबन्ध के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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