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________________ ॐ अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन * २९ * कारण दुःखित, व्यथित क्यों होती और जन्म-मरणादिरूप संसार में क्यों परिभ्रमण करती? अकषाय-संवर कैसे हो सकेगा, कैसे नहीं ? ___ अतः कषायों को आत्मा का स्व-भाव = निजी गुण मानने की भूल न करें, तभी वे अकषाय-संवर की साधना के सम्मुख हो सकते हैं। अन्यथा, हमें कषायों ने, कषायजनित कर्मों ने संसार में भटकाया है, दुःख दिया है, कषाय हमसे छूटते नहीं, छूट नहीं सकते; यों केवल कषायों की निन्दा करने, उनके दुर्गुणों की उद्घोषणा करने से अथवा कषायों के आगे हाथ जोड़कर प्रार्थना करने से कषाय नहीं चले जाएँगे। जागृतिपूर्वक कषायों पर संयम, संवर और ब्रेक लगाये बिना वे हटेंगे नहीं। सम्यग्दृष्टिपूर्वक कषायों का निरोध या स्वेच्छा से कषायों का शमन-दमन करने से ही कषाय छूटेंगे, अकषाय-संवर हो सकेगा अथवा पूर्वकृत कषायजनित कर्मबन्ध के फलभोग के समय समभाव और शान्ति से उनका फल भोग लेंगे तो कषायजनित कर्मों की निर्जरा भी हो सकेगी। कषाय से आत्मा की तथा आत्म-गुणों की हानि ही हानि है इसी दृष्टि से कर्मविज्ञान-मर्मज्ञों ने कषाय से लाभ-हानि के विषय में तथा कषाय से सुख-दुःख के सम्बन्ध में कतिपय प्रश्न उपस्थित करके तथाकथित कषाय मित्रों की आँखें खोलने का उपक्रम किया है। 'दशवैकालिकसूत्र' में प्रत्येक कषाय से आत्म-गुण की हानि का पहलू प्रस्तुत करते हुए कहा गया है-"क्रोधकषाय प्रीति (आदरभाव) का नाश करता है, मानकषाय आत्मा के विनय गुण को नष्ट कर डालता है, मायाकषाय आत्मा के सर्वभूत मैत्री गुण का नाश करता है और लोभकषाय तो सर्व-सद्गुणों का नाश कर डालता है।"२ मतलब यह है कि ये चारों कषाय आत्मा का कोई भी हित करने वाले, आत्म-गुणों की वृद्धि करने वाले या आत्मा (जीव) का कोई भी फायदा करने वाले नहीं हैं; अपितु आत्मा की, आत्म-गुणों की हानि तथा अहित ही करते हैं। कषाय-सेवन से इहलोक और परलोक सर्वत्र सन्ताप इसीलिए ‘अध्यात्म-कल्पद्रुम' में कहा गया है-“कषायों ने तुम्हारा क्या, कभी कोई गुण-निर्माण (फायदा) किया है कि तुम उनका सेवन नित्य ही गौरव के साथ करते हो? कषाय इन जन्म में भी सन्ताप, पीड़ा, दारिद्र्य, रोग आदि दुःख ही देते १. 'पाप की सजा भारी, भा. १' से भाव ग्रहण, पृ. ५३३, ५३० २. कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणय-णासणो। माया मित्ताणि णासेइ, लोभो सव्व-विणासणो॥ -दशवैकालिकसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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