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________________ * अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन 8 २७ 8 जन्म-मरण की परम्परा बढ़े, संसार वृद्धि हो, भव संख्या बढ़े, वह कषाय है। 'प्रशमरति' में भी इसी तथ्य को प्रगट किया गया है-“इस प्रकार क्रोध, मान, माया और लोभ (कषायचतुष्टय) दुःख के हेतु होने से संसारी जीवों के जन्म-मरण के चक्ररूप संसार के विषम (दुर्गम) मार्ग की ओर ले जाने वाले हैं।"१ 'दशवैकालिकसूत्र' में भी कषायों को जन्म-मरणरूप संसार की जड़ों को सींचने वाले कहे गये हैं “अनिगृहीत (वश में नहीं किये हुए) क्रोध और मान, माया और लोभ बढ़ते जाते हैं। फिर ये चारों ही काले कषाय बार-बार जन्म-मरणरूप संसार की जड़ों को सींचते हैं।' दूसरे शब्दों में कहें तो भव-संसार को बढ़ाने में सबसे बड़ा कारण कोई है तो कषाय ही है। 'आचारांग नियुक्ति' में भी कहा गया है-“संसार का मूल कर्म है और कर्म का मूल कषाय है।''२ · अरिहन्त भी कषायरिपुओं का क्षय करके ही बनते हैं इसीलिए जिन्हें हम 'नमो अरिहंताणं' कहकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं, वे अरिहन्त भगवन्त भी आत्मा के अन्तरंग शत्रुओं को नष्ट करते हैं, तभी वे अरिहन्त (अरि + हन्ता) कहलाते हैं। वे आन्तरिक शत्र और दूसरे नहीं, राग और द्वेष हैं। कषाय चार हैं। इनमें से 'प्रशमरति' के अनुसार माया और लोभ को राग के द्वन्द्व में तथा क्रोध और मान को द्वेष के द्वन्द्व में गिना जाता है। कर्म के बीज जैसे राग-द्वेष को बताया है, वहाँ कषाय उस कर्मबीज को अंकुरित करते हैं। उक्त कर्मबीज को सिंचित करते हैं-कषाय। इससे यह स्पष्ट बोध हो जाता है कि हमारे आराध्य देव वीतराग अरिहन्तों ने जिन कषायों पर पूर्ण विजय पा ली है, उन कषायों कों हम कर्मबन्ध के मूल कारण तथा संसार परिभ्रमण के हेतु जानते हुए भी अपने जीवन से चिपकाये बैठे हैं। उन्हें हम हटाना चाहते हैं फिर भी वे हटते नहीं। १. एवं क्रोधो मानो माया लोभश्च दुःखहेतुत्वात्, सत्वानां भव-संसारदुर्ग-मार्ग-प्रणेतारः। -प्रशमरति, श्लो. ३० २. (क) कषः संसारः, तस्य आयः लाभः = कषायः। (ख) कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्ढमाणा। चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पुणब्भवस्स।। -दशवैकालिकसूत्र (ग) संसारस्स उ मूलं कम्म, तस्स वि हुँति य कसाया। -आचारांग नियुक्ति १८९ ३. (क) ‘पाप की सजा भारी, भा. १' (मुनि श्री अरुणविजय जी) से भाव ग्रहण, पृ. ५२९ (ख) माया-लोभ-कषायश्चेत्येतद् राग-संज्ञितं द्वन्द्वम्। क्रोधो मानश्च पुनद्वेषाः इति समासे निर्दिष्टम्॥ -प्रशमरति (उमास्वातिवाचक) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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