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________________ ॐ २६ 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ * और अधिकतम होगा। यदि किसी व्यक्ति के कषायों की मात्रा अत्यधिक तीव्र है. तो उसकी लेश्याएँ भी अधिक अशुभ होंगी। फलतः मोहनीय कर्मबन्ध की स्थिति भी उतनी ही अधिक लम्बी होगी। अर्थात् उसे उतने लम्बे काल तक उक्त कर्म की सजा संसाररूपी जेल में भोगनी पड़ेगी। कभी-कभी तो उक्त क्रूर मोहकर्म की स्थिति इतनी लम्बी होती है कि कई-कई जन्मों तक उसकी सजा भोगनी पड़ती है। भगवान महावीर को भी दीर्घकाल तक वेदना भोगनी पड़ी .. . भगवान महावीर के जीव ने १८३ त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव (जन्म) में शय्यापालक के कान में अत्यन्त तपाया हुआ गर्म शीशा डलवाया था, जिससे अत्यन्त तीव्र वेदनापूर्वक उसकी मृत्यु हुई। उक्त तीव्र कषायजनित घोर पापकर्म का स्थितिबन्ध और रसबन्ध अत्यन्त दीर्घकालिक हुआ। फलतः उन्हें दो बार उक्त कर्म की सजा भोगने के लिए नरक में जाना पड़ा, वहाँ की भयंकर यातनाएँ भी सहनी पड़ीं। फिर भी उक्त कर्म की अवधि (स्थिति) पूर्ण नहीं हुई और भगवान महावीर को तीर्थंकर के भव (२७वें भव) में कान में कीले ठुकने की सजा भुगतनी पड़ी। यह सब तीव्र कषाय के कारण हुए पापकर्म की सजा थी। कषाय और नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्मबन्ध के मुख्य हेतु हैं और मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति (कर्मफल भोगने की अवधि) ७0 कोटाकोटि सागरोपम की है। कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार रसबन्ध-स्थितिबन्ध और संसार में स्थिति कषाय की तीव्रता-मन्दता के अनुसार जैसे स्थितिबन्ध होता है, वैसे ही रसबन्ध भी होता है। तीव्र-मन्द रसबन्ध के अनुसार जीव को कर्म के उदय के समय अधिक या अल्प दुःख का अनुभव (वेदन) होता है। ___ इस पर से यह स्पष्ट है कि कषाय ही जीवों को जन्म-मरणरूप संसार में उनके स्थितिबन्ध-रसबन्ध के अनुसार भटकाता है। कषाय का अर्थ ही संसार-वृद्धि है आचार्यों ने कषाय का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ भी यही किया है-कष + आय। अर्थात् कष-यानी संसार और आय-यानी लाभ। जिससे संसार का लाभ हो। तात्पर्य यह है कि जिससे चार गति और चौरासी लाख जीव योनिरूप संसार में १. (क) देखें-'कल्पसूत्र' (आनन्द महर्षि-संस्करण) में भगवान महावीर के २७ भवों का वर्णन (ख) सप्तति र्मोहनीयस्य। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ८, सू. १६ (ग) १६ कषाय और ९ नोकषाय; यों चारित्रमोहनीय के २५ भेद हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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