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________________ २ अकषाय-संवर : एक सम्प्रेरक चिन्तन किसी व्यक्ति को कठोर अपराध के फलस्वरूप सख्त जेल में डाल दिया जाय और उसे खाने-पीने, रहने, सोने की भी सुविधा न दी जाए एवं सख्त परिश्रम कराया जाए तो वहाँ रहना अच्छा नहीं लगता, वह जेल से जल्दी से जल्दी छूटने के लिए छटपटाता है, किन्तु उसने यदि क्रूरतम भावों से अपराध किया है तो जेल में उसको कठोर सजा मिलती है और लम्बी अवधि तक जेल में रहना पड़ता है। जब तक उसकी सजा की अवधि पूरी नहीं होती, तब तक उसे वहाँ से छुटकारा नहीं मिलता। ठीक इसी प्रकार तीव्र कषाय के फलस्वरूप जिस व्यक्ति ने घोर पापकर्म (मोहनीय कर्म) बाँधा है, साथ ही दीर्घकालिक स्थितिबन्ध किया है, उसके कारण दीर्घकाल तक संसाररूपी जेल में उसे रहना पड़ता है। उसे इस संसाररूपी - जेल से छूटने की छटपटाहट बहुत होती है, किन्तु जब तक उसकी अवधि (स्थिति) पूरी नहीं होती, तब तक उसे रहना पड़ता है, अनेक दुःखों, यातनाओं और विपदाओं को भी भोगना पड़ता है, किसी-किसी पापकर्म के फल का भुगतान कई-कई जन्मों तक नहीं होता । रसबन्ध और स्थितिबन्ध कषाय से ही होता है कर्मविज्ञानवेत्ता महर्षियों ने बताया है कि प्रकृतिबन्ध आदि चार कोटि के बन्धों में से प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग से होता है, जबकि स्थितिबन्ध और रसबन्ध (अनुभागबन्ध) कषाय से होता है।' अर्थात् कर्म के स्थितिबन्ध और रसबन्ध का आधार कषाय है। किसी प्राणी के जीवन में कषायों की मात्रा कम है और कषाय भी मन्द है तो उसकी संसाररूपी जेल में रहने की अवधि भी अल्प होगी और उसे संसार में दुःख, कष्ट आदि भी कम होंगे। परन्तु यदि कषाय तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम है, उसके अध्यवसाय (मानसिक परिणाम ) भी अशुभ, अशुभतर और अशुभतम हैं तो उसके पापकर्मों की स्थिति का बन्ध भी दीर्घ, दीर्घतर, दीर्घतम होगा और उसके अध्यवसाय के अनुसार दुःखवेदन भी अधिक, अधिकतर १. जोगा पयडि-पएसा, ठिई अणुभागं कसायओ । - कर्मग्रन्थ, भा. १ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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