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________________ ® व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान ॐ ४४३ ॐ कुछ धर्मों को नहीं देना (सिखाना) चाहता। अतः मैं अन्य गण में जाना चाहता हूँ। (७) मैं एकलविहार-प्रतिमा धारण करके विचरण करना चाहता हूँ। अतः मैं गण छोड़कर जाना चाहता हूँ।" ___ अतः गण-व्युत्सर्ग करने वाले के लिए आवश्यक है कि धर्माचार्य को गण छोड़ने का कारण बताकर वह उनसे आज्ञा प्राप्त कर ले। आज्ञा लिये बिना गण नहीं छोड़ना चाहिए।' गण-व्युत्सर्ग का मुख्य प्रयोजन है-श्रुतज्ञान व चारित्र की विशिष्ट साधना/ आराधना के लिये गण का त्यागकर अन्य गण में जाना या फिर एकाकी रहना। उपधि-व्युत्सर्ग क्या और कैसे ? द्रव्य-व्युत्सर्ग का तृतीय प्रकार है-उपधि-व्युत्सर्ग। उपधि का अर्थ हैसंयम-साधना में आवश्यक मर्यादानुसार रखे गए वस्त्र, पात्र, उपकरण आदि का। साधक को सभी उपकरणों को रखने की मर्यादा शास्त्रों में बताई गई है, उससे अधिक तो रखना ही नहीं है, बल्कि उन उपकरणों में धीरे-धीरे कमी करते जाना। संलेखना-संथारा (आमरण अनशन) करते समय तो बिलकुल परित्याग कर देना चाहिए। साधु-साध्वी के समक्ष आदर्श है-“अप्पोवहि उवगरणजाए।"-अल्प उपधि और अल्प उपकरण रखकर अपनी जीवनचर्या चलाए। 'भगवतीसूत्र' में स्पष्ट कहा गया है-“लाघवियं पसत्थं।"-अल्प उपधि या अल्प उपकरण रखना, द्रव्यलघुता है, वह प्रशस्त है। जिस साधक का बाह्य हलकापन है, वह संयम का भलीभाँति पालन कर सकता है। ‘आचारांग वृत्ति' में उपधि-व्युत्सर्ग का तात्पर्य और विधिविधान बताया गया है। इस तप की विशेष साधना तीर्थंकर, जिनकल्पी मुनि कर सकते हैं। फिर भी आगमों में इसकी विधि इस प्रकार बतायी गयी है-“साधक तीन वस्त्रों में पहले एक वस्त्र का त्याग करे, फिर दो वस्त्रों का परित्याग करके सिर्फ एक ही वस्त्र में सर्दी, गर्मी बिताए तथा समय आने पर उस एक वस्त्र का भी परित्याग कर अचेल अवस्था प्राप्त करे। इस त्याग का न तो ढिंढोरा पीटे, न ही अहंकार करे और न ही दूसरों को नीचा दिखाने और न बदनाम करने का प्रयास करे। मूल में तो त्याग का दिखावा न करके कषायों को मन्द करना है। जितना-जितना कषाय मन्द होता है, उतना-उतना वह साधु मोक्ष के निकट जल्दी पहुंचता है। संयम, नियम, त्याग और तप की कसौटी पर स्वयं को कसता जाए, परीषहों से जूझता रहे, यह भी जरूरी है। १. सत्तविहे गणावक्कमणे प. तं.-सव्व; धम्मा रोएमि, एगइया रोएमि, एगइया णो रोएमि; सव्वधम्मा वितिगिच्छामि; एगइया वितिगिच्छामि, एगइया णो वितिगिच्छामि; सव्वधम्मा जुहुणामि; एगइया जुहुणामि, एगइया णो जुहुणामि; इच्छामि णं भंते ! एकल्लविहार-पिडिमं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए।" -स्थानांगसूत्र, स्था. ७, सू. ६५८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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