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________________ ॐ ४४२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 अनेक प्रकार के साधु तथा साध्वी रहते हैं, वे अपनी-अपनी रुचि या सामर्थ्य के अनुसार सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप की साधना करते हैं, शास्त्रों का अध्ययन करते हैं। जैसे शरीर, शासक, षट्काय, गृहस्थ आदि साधना में सहायक एवं उपकारी होते हैं, वैसे ही गण भी साधना में सहयोगी एवं उपकारी होता है। गण के आश्रय से साधु-साध्वी अपनी चर्या निर्दोष एवं समाधिपूर्वक चला सकते हैं। भगवान महावीर के शासन में एक-एक गण में हजारों साधु-साध्वियों का समूह रहता था, सबकी समाचारी तथा श्रद्धा-प्ररूपणा समान होती थी। गण-व्यवस्था में गणनायक गणधर कहलाते थे। गण साधना में उपकारी है तो इसे क्यों त्यागा जाय ? प्रश्न होता है-जब 'गण' साधना में सहायक और उपकारी है तो फिर उसका व्युत्सर्ग-त्याग क्यों किया जाय? उत्तर है-"गण से भी अधिक उपकारी मनुष्य का अपना शरीर है। जब शरीर का ही त्याग किया जाता है, सभी अवलम्बनों का उच्च भूमिका में त्याग किया जाता है, तो गण के त्याग की बात तो बहुत साधारण हो जाती है। जब साधक को यह अनुभव हो जाता है कि मेरी मोक्षमार्ग कीकर्ममुक्ति की साधना या सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रय के अभ्यास आदि में इस गण का त्याग कर देने से या गणान्तर को धारण करने से अथवा सर्वगणों को छोड़कर एकाकी रहने से अधिक लाभ हो सकता है, तब उन कारणों को ध्यान में रखकर वह उस गण को छोड़ भी सकता है, परन्तु उस गण के द्वारा किये हुए अपने प्रति उपकारों या सहयोगों को भूलकर नहीं। गण-व्युत्सर्ग के सात कारण 'स्थानांगसूत्र' में बताया गया है कि “साधकगण का व्युत्सर्ग सात कारणों से कर सकता है-(१) मैं सब धर्मों (सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र धर्मों) को प्राप्त करना (साधना) चाहता हूँ, उन धर्मों को (साधनाओं को) मैं अन्य गण में जाकर ही प्राप्त कर सकूँगा। अतः मैं गण छोड़कर अन्य गण में जाना चाहता हूँ। (२) मुझे अमुक धर्म (साधना) प्रिय है और अमुक धर्म (साधना) प्रिय नहीं है। अतः गण छोड़कर मैं अन्य गण में जाना चाहता हूँ। (३) सभी धर्मों (साधनाओं) में मुझे संशय है। अतः मैं संशय-निवारणार्थ अन्य गण में जाना चाहता हूँ। (४) कुछ धर्मों (साधनाओं) में मुझे संशय है और कुछ धर्मों में संशय नहीं है। अतः मैं संशय-निवारणार्थ अन्य गण में जाना चाहता हूँ। (५) सभी धर्मों (ज्ञानादि रत्नत्रयरूप धर्मों) से सम्बन्धित विशिष्ट धारणाओं को मैं देना (सिखाना) चाहता हूँ। इस गुण में ऐसा कोई योग्य पात्र नहीं है। अतः मैं अन्य गण में जाना चाहता हूँ। (६) कुछ धर्मों पूर्वोक्त धर्म-साधनाओं को मैं देना (सिखाना) चाहता हूँ और Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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