________________
ॐ ४४४ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
द्रव्य-व्युत्सर्ग का चौथा प्रकार है-भक्तपान-व्युत्सर्ग। भोजन-पानी का परित्याग करना। इसमें इत्वरिक अनशन, एकाशन, यावज्जीव अनशन तथा ऊनोदरी तपों की साधना का समावेश हो जाता है। क्रमशः आहार का त्याग करते हुए समय आने पर पूर्णतया चतुर्विध आहार का त्याग करे यही भक्तपान-व्युत्सर्ग है। भाव-व्युत्सर्ग के प्रकार और स्वरूप
भाव-व्युत्सर्ग के तीन प्रकार हैं-(१) कषाय-व्युत्सर्ग, (२) संसार-व्युत्सर्ग, और (३) कर्म-व्युत्सर्ग।
(१) कषाय-व्युत्सर्ग-कषाय के मुख्य चार और उत्तरभेद सोलह हैं तथा नोकषायों (कषायों के उपजीवियों) के नौ भेद मिलाने से २५ भेद कषायों के हो जाते हैं। क्रोधादि कषायों को तथा नौ नोकषायों को तीव्र, तीव्रतर से मन्द और मन्दतर बनाता जाए, इनको क्रमशः उपशम, मार्दव, सरलता और सन्तोष से जीते, अर्थात् इन चार धर्मों की साधना से क्रमशः चारों कषायों को जीते। क्रोध को क्षमा
और शान्ति से, मान को मृदुता = कोमलता से, माया को सरलता से, लोभ को सन्तोष से जीतने का अभ्यास करे। इन चार धर्मों तथा दशविध श्रमणधर्म द्वारा कषायों और नोकषायों को क्षीण करते रहना कषाय-नोकषाय- व्युत्सर्ग है।' क्रोध-व्युत्सर्ग का ज्वलन्त उदाहरण : चण्डकौशिक सर्प का
क्रोध-व्युत्सर्ग के विषय में हम यण्डकौशिक सर्प का उदाहरण ले सकते हैं। पूर्व-जन्म में साधु बने हुए अतिक्रोधावेश में मृत्यु के वश चण्डकौशिक को सर्प की योनि मिली। परन्तु सर्प की योनि में तो और भी भयंकर क्रोधी हो गया। विश्ववात्सल्य-मूर्ति भगवान महावीर उसे प्रतिबोध देने हेतु उसकी बाँबी पर पधारे। एक बार क्रोध में फनफनाते हुए उसने उनके अंगूठे पर डस लिया। परन्तु वे जरा भी विचलित न हुए तो उनके चेहरे की ओर देखते और ऊहापोह करते-करते उसे जाति-स्मरण (पूर्व-जन्म का) ज्ञान हो गया। भगवान ने उसे प्रतिबोध दिया"चण्डकौशिक ! अब भी समझो-समझो ! अब भी बिगड़ी बाजी को सुधार सकते हो।" चण्डकौशिक तुरंत समझ गया कि क्रोध का परिणाम कितना भयंकर होता है। बस, उसने क्रोध-व्युत्सर्ग करके क्षमा धारण कर ली। अपना मुँह बाँबी के अंदर डाल दिया। अब वह किसी को सताता-काटता या फुफकारता तक न था।
१. (क) चउव्विहे कसाए प. तं.-कोहकसाए, माणकसाए, मायाकसाए, लोहकसाए। -ठाणांग ४ (ख) उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायमज्जवभावेण, लोहं संतोसओ जिणे॥
-दशवै. ८/३९
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org