________________
ॐ ४४० ® कर्मविज्ञान : भाग ७ 8
बिना भोगे भी पापकर्मों की शुद्धि हो सकती है
कुछ दार्शनिकों का कहना है-जो पापकर्म एक बार हो गए हैं, क्या उन्हें बिना भोगे हुए छुटकारा हो सकता है ? या क्या पापकर्म भी धोकर साफ किये जा सकते हैं ? जैन-कर्मविज्ञान इस तथ्य से असहमत है। निकाचितरूप से बँधे हुए पापकर्मों के सिवाय अन्य पापकर्मों को ज्यों का त्यों भोगा जाए, ऐसा नियम नहीं है। यदि किये हुए पापकर्मों की शुद्धि न मानें तो यह सब बाह्य- आभ्यन्तरतपःसाधना, सम्यग्ज्ञानादि रत्नत्रयरूप धर्म की साधना निरर्थक कायकष्ट ही होगी। संसार-व्यवहार में हम देखते हैं कि अनेक विकृत हुई वस्तुओं को विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा शुद्ध कर लिया जाता है तब आत्मा को शुद्ध क्यों नहीं किया जा सकता? पाप की शक्ति से आत्मा की शक्ति बलवती है, धर्म की शक्ति बहुत ही प्रबल है। हमारी आध्यात्मिक शक्ति भागवती शक्ति है। उसके समक्ष आसुरी शक्ति कैसे टिक सकती है ? गिरि-गुफा में हजारों वर्षों से अन्धकार भरा है। हाथ को हाथ नहीं सूझता। जिधर चलते हैं, उधर ही ठोकरें खाते हैं। ऐसे में ज्यों ही प्रकाश अंदर पहुँचता है, अन्धकार क्षणभर में भाग जाता है। कायोत्सर्गरूप तपोधर्म की साधना ऐसा ही अप्रतिहत प्रकाश है, उससे वर्षों से अज्ञातमन में पड़ा हुआ विकाररूप अन्धकार नष्ट हो जाता है। भोग भोगकर कर्मों का नाश कब तक होगा? प्रत्येक आत्म-प्रदेश पर अनन्त-अनन्त कर्मवर्गणाएँ हैं। इस छोटी-सी जिंदगी में उनका भोग हो भी तो कैसे हो? अतएव जैन-कर्मविज्ञान पापों की विशुद्धि का उपाय बताता है-प्रायश्चित्तरूप कायोत्सर्ग से। प्रायश्चित्त कायोत्सर्ग की अपूर्व शक्ति के द्वारा आत्मा की शुद्धि हो सकती है। भूला-भटका साधक प्रायश्चित्तरूप कायोत्सर्ग के द्वारा जब अतीत और वर्तमान में लगे हुए पाप-दोषों का स्वयं प्रायश्चित्त कर लेता है तो वह शुद्ध-निष्पाप हो जाता है। वस्त्र पर जब तक अशुचि-अशुद्धि लगी रहती है, तभी तक उसको पहनने में अरुचि या घृणा बनी रहती है, परन्तु जब वह वस्त्र धोकर साफ कर लिया जाता है, तब फिर पहले की तरह रुचि और स्नेह से वह पहना जाता है। यही बात पापों से मलिन आत्मा के सम्बन्ध में है। प्रायश्चित्तरूप कायोत्सर्ग से पापों की शुद्धि कर लेने पर वही व्यक्ति समाज में तथा लोक-परलोक में सर्वत्र आदर और स्नेह का पात्र बन जाता है। प्रायश्चित्त के अनेक रूप हैं। जैसा और जिस इरादे से दोष होता है, उसी प्रकार का प्रायश्चित्त उसकी शुद्धि करता है। प्रायश्चित्तरूप कायोत्सर्ग के द्वारा प्रसन्नचन्द्र राजर्षि ने अपने द्वारा किये गए पापों-दोषों की शुद्धि अल्प समय में ही कर ली थी और उत्कट कायोत्सर्गभावों द्वारा आत्म-गुणों में, आत्म-स्वरूप में स्थिर होते ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था। कृरगडूक मुनि ने प्रायश्चित्तरूप कायोत्सर्ग द्वारा ही अपने पापों-दोषों के प्रक्षालन के साथ अहंकारादि कषायों पर विजय प्राप्त कर ली
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org