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• व्युत्सर्गतप: देहातीत भाव का सोपान ४३९
करते रहने से एक दिन आत्मा में ऐसी शक्ति प्राप्त हो सकती है, जिसके फलस्वरूप साधक मृत्यु का प्रसन्नतापूर्वक शान्तभाव से आलिंगन कर सकता है और मरकर भी मृत्यु पर विजय पा लेता है।
कायोत्सर्ग के लिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्वार्थों का बलिदान जरूरी है वस्तुतः कायोत्सर्ग का उद्देश्य शरीर और शरीर-सम्बद्ध पर - पदार्थों पर जो मोह-ममता है, उसका त्याग करना या उसे कम करना है। यह जीवन का मोह, शरीर की ममता - आसक्ति बहुत ही भयंकर है। साधक की साधना में विष घोलने का काम करती है। जो व्यक्ति कर्त्तव्य और सद्धर्म की उपेक्षा करके तुच्छ स्वार्थ और शरीर को ही अधिक महत्त्व देते हैं, वे चाहे साधु हों या गृहस्थ, समय पर न तो अपनी रक्षा कर सकते हैं, न संघ, गच्छ, परिवार या राष्ट्र की रक्षा कर पाते हैं। वे संकटकाल में किंकर्त्तव्यविमूढ़ एवं शरीरासक्त होकर बुत की तरह खड़े रहते हैं । कायोत्सर्ग की या आधुनिक युगभाषा में कहें तो स्वार्थों के बलिदान की, सेक्रिफाइस की या काया के मोह त्याग की भावना के बिना कोई भी संघ, गच्छ, परिवार, समाज और राष्ट्र सुखी और स्वस्थ नहीं रह सकता । '
प्रायश्चित्तरूप कायोत्सर्ग : प्रयोजन और परिणाम
चेष्टा- कायोत्सर्ग का एक प्रकार है - प्रायश्चित्तरूप कायोत्सर्ग । 'अनुयोगद्वारसूत्र' में इसे व्रणचिकित्सा कहा गया है। धर्म की आराधना करते समय यदि कहीं प्रमादवश अहिंसा, सत्य आदि व्रतों में, मूलगुण- उत्तरगुणों में, नियमोपनियमों में जो भूलें, त्रुटियाँ या गलतियाँ हो जाती हैं, अतिचार या दोष लग जाते हैं, उनके शोधन के लिए प्रायश्चित्तरूप कायोत्सर्ग किया जाता है। दोष या अतिचार संयमशरीर के घाव हैं । कायोत्सर्ग उन घावों पर मरहम का काम करता है अथवा संयम-यम-नियमरूप वस्त्र पर अतिचारों का मल या दाग लग जाता है, उसे प्रतिक्रमणान्तर्गत कायोत्सर्गरूपी जल से धोया जाता है। यह संयमी - जीवन पर लगे हुए मल के कण-कण को साफ कर देता है और संयम - जीवन को विशुद्ध बना देता हैं। आवश्यकसूत्र के अन्तर्गत 'उत्तरीकरणसूत्र' में इसी आशय को प्रकट किया गया है - " संयम - जीवन को विशेष रूप से परिष्कृत करने के लिए, प्रायश्चित्त करने के लिए, (आत्मा की ) विशुद्धि करने के लिए, उसे शल्यरहित बनाने के लिए तथा पापकर्मों का निर्घात (विनाश) करने के लिए (मैं) कायोत्सर्ग करता हूँ ।" "
१. 'श्रमणसूत्र' (स्व. उपाध्याय अमर मुनि ) से भाव ग्रहण, पृ. ९७ २. (क) वही, पृ. ९५
(ख) तस्य उत्तरीकरणेणं पायच्छित्तकरणेणं विसोहीकरणेणं विसल्लीकरणेणं पावाणं कम्माणं निघायणट्ठाए ठामि काउसग्गं ।
- उत्तरीकरणसूत्र
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