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* ४३८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ *
काउसग्गकारी।" अभीक्ष्ण यानी बार-बार करता रहे। प्रति क्षण देह की ममता से दूर रहकर कायोत्सर्ग का अभ्यास करता रहे। कायोत्सर्ग के दैनिक अभ्यास के समय साधक की भावना
कायोत्सर्ग के अभ्यासी साधक कायोत्सर्ग की मुद्रा में जो कुछ भी शरीर में हो रहा है, होने दें। उस ओर बिलकुल ध्यान न दें। पैरों में पीड़ा हो रही है, होने दें पीड़ा। आँधी और तूफान आ रहे हैं, भले आएँ। मूसलधार वर्षा हो रही है, होने दें। जो कुछ भी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि की ओर से फरियाद आ रही है, आने दें। बाहर से कोई भी कर्कश आवाज आ रही है या संगीत की स्वर लहरी आ रही है, उस पर भी बिलकुल ध्यान न दें। इष्टवियोग, अनिष्ट-संयोग हो तो भी उसे होने दें। एकमात्र सहन करते जाएँ। प्रति क्षण आत्म-भावों का, आत्म-गुणों का स्मरण और चिन्तन करते रहें। भेदविज्ञान को सक्रिय बनाने के लिए प्रतिक्रियाविरति और सहिष्णुता अनिवार्य है। जो होता है, होने दें। इस प्रकार शुद्ध आत्मा-परमात्मा के सिवाय पर-पदार्थों की चिन्ता से मुक्त हो जाना ही कायोत्सर्ग की साधना में सफलता है।
कायोत्सर्ग के अभ्यास में केवल शरीर की स्थिरता ही पर्याप्त नहीं है, उसके साथ सहिष्णुता, भेदविज्ञान की सक्रियता और निर्भयता भी आवश्यक है। कायोत्सर्ग के दो रूप : चेष्टा-कायोत्सर्ग और अभिभव-कायोत्सर्ग
पूर्वोक्त वर्णन से यह स्पष्ट है कि कायोत्सर्ग के मुख्यतया दो रूप हैं-एक चेष्टा-कायोत्सर्ग और दूसरा अभिभव-कायोत्सर्ग। चेष्टा कायोत्सर्ग गमनागमन आदि चर्या एवं साधना के समय में तथा आवश्यक आदि के रूप में प्रतिदिन परिमित काल के लिए प्रायश्चित्त के रूप में आत्म-शुद्धिकारक होता है, जबकि अभिभवकायोत्सर्ग यावज्जीवन के लिए होता है। उपसर्ग-विशेष के आने पर यावज्जीवन के लिए जो सागारी-संथारारूप कायोत्सर्ग किया जाता है, उसमें यह भावना रहती है कि यदि मैं इस उपसर्ग के कारण मर जाऊँ तो मेरा यह कायोत्सर्ग यावज्जीवन के लिए है, परन्तु अगर मैं जीवित बच जाऊँ तो उपसर्ग रहने तक यह कायोत्सर्ग है। अभिभव-कायोत्सर्ग का दूसरा रूप-यावज्जीवन के लिए जो आगाररहित संथारा, भवचरिम = आमरण अनशन के रूप में किया जाता है, उसका है। समाधिमरणरूप यावज्जीवन संथारे के बहुत-से भेद हैं, जिनका निरूपण आचारांग, सूत्रकृतांग, भगवतीसूत्र आदि आगमों तथा आवश्यकनियुक्ति आदि ग्रन्थों से जान लेना चाहिए। वस्तुतः प्रथम चेष्टा-कायोत्सर्ग अन्तिम अभिभव-कायोत्सर्ग का अभ्यास सुदृढ़ करने के लिए है। प्रतिदिन नियमित रूप से कायोत्सर्ग का अभ्यास
१. दशवैकालिकसूत्र, द्वितीय चूलिका, गा. ७
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