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ॐ व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान ॐ ४३७ *
यह सब देखकर समभाव से सहन किया। दोनों ने कायोत्सर्ग द्वारा क्षपकश्रेणी पर आरूढ़कर केवलज्ञान की परम ज्योति प्राप्त की, सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए।'
कायोत्सर्ग में साधक का चिन्तन इस प्रकार के कायोत्सर्ग की सिद्धि के लिए जैनधर्म के साधकों के लिए षट् आवश्यकों में कायोत्सर्ग नामक पंचम आवश्यक का स्वतंत्र विधान है। प्रत्येक जैन-साधक को प्रतिदिन प्रातः और सायं कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर और आत्मा की भिन्नता के विषय में विचार करना होता है कि यह शरीर और है, मैं और हूँ। मैं अजर-अमर सचेतन आत्मा हूँ, शरीर नाशवान्, क्षणभंगुर और जड़ है। वह कदापि मेरा स्वामी नहीं हो सकता। उसका क्या है? आज है, कल नष्ट हो सकता है। परन्तु आत्मा का कभी नाश नहीं हो सकता। तब फिर मैं इस क्षणभंगुर शरीर के मोह में पड़कर अपने धर्म, कर्तव्य, गुण, स्व-भाव से क्यों विमुख बनूँ? शरीर मिट्टी का पिण्ड है, यह जब तक काम देगा, मैं इससे डटकर धर्मकार्य करूँगा, परन्तु जब यह शरीर कर्तव्य-पथ में या धर्मपालन में बाधक बने, जीने का मोह दिखाकर आदर्श से भ्रष्ट करे या धर्म से विचलित करे तब मैं इसकी मोहभरी रागिनी को नहीं सुनूँगा। शरीर मेरा वाहन है। मैं इस पर सवार होकर अपनी तप-संयममयी जीवनयात्रा का दीर्घ-पथ तय करने का पुरुषार्थ करूँगा, किन्तु यदि यह शरीररूपी वाहन उलटा मुझ पर सवार होना चाहेगा, तो मैं कथमपि ऐसा नहीं होने दूंगा। यह है कायोत्सर्ग की मूल भावना। . . जो साधक प्रतिदिन नियमित रूप से कायोत्सर्ग की इस प्रकार बाहोश होकर साधना करते रहेंगे। वे मरणान्तक कष्ट, संकट या धर्मपालन के अवसर पर शरीर की मोहमाया से बच सकेंगे और अपने कर्ममुक्तिरूप लक्ष्य की ओर द्रुतगति से आगे बढ़ सकेंगे।
प्रतिक्रमण तथा अन्य चर्या के समय भी कायोत्सर्ग की भावना रहे यही कारण है कि प्रतिक्रमण में कई बार कायोत्सर्ग का पाठ बोला जाता है, किन्तु ऐसा विधान है कि केवल प्रतिक्रमण के समय ही नहीं, दिन और रात में विविध चर्या एवं साधना के समय भी मन में कायोत्सर्ग की भावना जाग्रत रहनी चाहिए। 'दशवैकालिकसूत्र' की द्वितीय चूलिका में कहा गया है-“अभिक्खणं
१. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व ७ से संक्षिप्त २. श्रमणसूत्र, अः १६ में कायोत्सर्ग आवश्यक (स्व. उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण,
पृ. ९८
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