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________________ * ४३४ * कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ ___ इस सत्य के अनुसार राजा ने परीषह को समभाव से सहन किया। सुबह पौ फटते-फटते इधर दीपक का तेल समाप्त होने आया, उधर राजा के शरीर में आयुष्य का तेल भी समाप्त हो गया। पैर सूज गए थे। वह धड़ाम से भूमि पर गिर. पड़ा और परम पवित्र ध्यानपूर्वक देह-विसर्जन कर उच्च गति को प्राप्त हुआ।' ये वीरतापूर्वक शरीर का व्युत्सर्ग करने वाले कायोत्सर्ग वीर इस प्रकार कायोत्सर्ग की निष्ठापूर्वक साधना करने से साधक अपने शरीर को या शरीर के प्रति ममत्व को बहादुरी के साथ पूर्णतया विसर्जन करने की स्थिति में पहुँच जाता है। धर्मरुचि अनगार ने भिक्षा में प्राप्त विषाक्त कटु तुम्बे के साग को नीचे जमीन पर परिष्ठापन करने से अनेक चींटियों की हिंसा की सम्भावना सोचकर उस शाक को जमीन पर न परिठाकर अहिंसाधर्म के रक्षणार्थ कायोत्सर्गभावना से अपने उदर में उसे डाल लिया और फिर समभावपूर्वक काया का विसर्जन कर दिया। महासती चन्दनबाला की माता धारणी रानी ने अपने पर शीलभंग का संकट देखकर शीलधर्म की रक्षा के लिए स्वयं की काया का वीरतापूर्वक बलिदान दे दिया। कायोत्सर्ग का महत्त्वपूर्ण अंग : अभय कायोत्सर्ग का एक अंग है-अभय। संवर-निर्जरारूप धर्म का आदि-अन्त का बिन्दु अभय है। शरीर के प्रति ममत्व भय पैदा करता है। यह शरीर मेरा है (ममेद शरीरं), इस प्रकार व्यक्ति जिस क्षण शरीर को अपना मान लेता है, उसी क्षण उसे समय आने पर छोड़ने-विसर्जन करने, समभावपूर्वक धर्मरक्षा के लिए त्यागने में भय लगता है। ममत्व और भय दो नहीं, एक हो जाते हैं वहाँ। भयोत्पत्ति का पहला कारण ममत्व है। ममत्व न हो तो व्यक्ति शरीर की परवाह या चिन्ता नहीं करते। १. (क) काउसग्गे जह सुट्ठियस्स भज्जति अंगमंगाई। इय भिदंति सुविहिया अट्ठविहं कम्म संघायं॥ -आवश्यकनियुक्ति १५५१ (ख) .......... वोसिरे सव्वसो कायं, न मे देहे परीसहा॥ यावज्जीवं परीसहा उवसग्गा इति संखाय। संवुडे देहभेयाए इय पन्नेऽहियासए॥ -आचारांग, श्रु. १, अ. ८, उ. ५ (ग) 'जैनधर्म में तप' के आधार पर संक्षिप्त, पृ. ५१४ (घ) पच्छा पुरा य चइयव्वं फेण-बुब्बुय-सन्निभं । -उत्तराध्ययन २/२७ २. (क) देखें-ज्ञातासूत्र, अ. १६ में धर्मरुचि अनगार का वृत्तान्त (ख) देखें-आवश्यकनियुक्ति में चन्दनबाला का वृत्तान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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