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________________ * व्युत्सर्गतप: देहातीत भाव का सोपान ४३५ कायोत्सर्ग तब तक पूरा नहीं होता, जब तक भेदविज्ञान होकर देहाध्यास न छूटे। संलेखना-संथारा के पाठ 'मा णं बाला, मा णं चोरा' आदि में देह के प्रति ममत्व या भयाशंकाएँ प्रगट की गई हों तथा कहीं गिर न जाऊँ, चोट न लग जाए, बीमारी न आ जाए, यह आशंका होते ही शरीर में तनाव आ जाता है, ऐसा होने पर कायोत्सर्ग नहीं होता। कायोत्सर्ग के पहले शरीर पर होने वाले ममत्व को, मोह-मूर्च्छा को इतनी हद तक विसर्जन कर देनी होती है कि एक झटके में वीरतापूर्वक अपने शरीर को त्यागने, बलिदान देने, उत्सर्ग करने के लिए तैयार हो जाए। शरीर की चिन्ता या ममता से मुक्त होना सरल बात नहीं है। महामुनि स्कन्धक के शिष्यों द्वारा वीरतापूर्वक हँसते-हँसते कायोत्सर्ग महामुनि स्कन्धक (खंधक) अपनी गृहस्थपक्षीय बहन पुरन्दरयशा के ससुराल के कुम्भकटकपुर नगर में अपने ५०० श्रमण-शिष्यों के साथ पधारे। वहाँ के राजा दण्डक के मंत्री का नाम पालक था । उसको स्कन्धककुमार ने धार्मिक चर्चा में पराजित कर दिया था। अपनी पराजय का बदला लेने हेतु जिस उपवन में स्कन्धक आदि मुनिवर ठहरे हुए थे, उसके आसपास गुप्तरूप से शस्त्र गड़वा दिये और राजा को बहका दिया कि स्कन्धक अपने साथ ५०० सुभट - शिष्यों सहित शस्त्रास्त्र लेकर आपका राज्य छीनने आए हैं। गड़े हुए शस्त्र भी बता दिये । फलतः पालक को राजा दण्डक ने अपनी इच्छानुसार दण्ड देने की अनुमति दे दी। पालक ने एक-एक करके ४९९ साधुओं को घाणी में पील दिया । महामुनि स्कन्धक ने अपने शिष्यों को समाधिस्थ रहकर काया का उत्सर्ग करने की प्रेरणा दी । अन्त में सबसे छोटे शिष्य को पीलते समय महामुनि स्कन्धक शिष्य - मोहवश उत्तेजित हो उठे । क्रोधावेश में आकर उन्होंने निदान ( नियाणा) कर लिया, जिससे वे मरकर अग्निकुमार देव बने और दण्डक नगर को भस्म कर दिया । परन्तु ५०० शिष्यों ने, जो शरीर और आत्मा के भेदविज्ञान में अभ्यस्त थे, काया का ममत्व त्याग कर उसका समभावपूर्वक निर्भयता के साथ विसर्जन कर दिया, वे आराधक हुए । ' अतः भयमुक्ति और सहिष्णुता कायोत्सर्ग के प्राण हैं । भेदविज्ञान से प्राप्त सहिष्णुता भी कायोत्सर्ग का महत्त्वपूर्ण अंग अतः जैसे कायोत्सर्ग का अंग अभय है, वैसे ही सहिष्णुता ( क्षान्ति) भी उसका अंग है। क्षान्ति का पर्यायवाची शब्द है - तितिक्षा, सहिष्णुता । 'उत्तराध्ययनसूत्र' में कहा है–“तितिक्षा–सहिष्णुता को परम धर्म जानकर साधक उस धर्म का समभावपूर्वक आचरण करे ।" सहिष्णुता की भावना भेदविज्ञान की दृष्टि प्राप्त होने १. देखें - सुकौशल मुनि की कथा त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, पर्व ७ में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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