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________________ ॐ व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान * ४३३ ॐ राजा चन्द्रावतंस की कायोत्सर्ग में दृढ़ता और शुद्धता कायोत्सर्ग के सम्बन्ध में राजा चन्द्रावतंस का जैन इतिहास में ज्वलन्त उदाहरण है-राजा चन्द्रावतंस राज्य करते हुए भी साधनामय जीवन जीते थे। एक बार किसी पर्वतिथि को उपवास किया। रात्रि में कायोत्सर्ग करने का संकल्प करके राजप्रासाद के उपासना-कक्ष में कायोत्सर्ग में विधिवत् खड़े हो गये। सामने ही एक दीपक धीमे-धीमे टिमटिमा रहा था। राजा ने संकल्प किया-"जब तक यह दीपक जलता रहेगा, तब तक मैं कायोत्सर्ग में खड़ा रहकर आत्म-ध्यान में लीन रहूँगा।" कुछ समय बीता। राजा की परिचारिका दासी वहाँ आई। उसने दीपक के प्रकाश को धुंधला पड़ते देख, तेल से लबालब भर दिया, ताकि अंधेरा न हो और महाराजा को कष्ट न हो। दीपक जलता रहा तो राजा भी अपने संकल्पानुसार कायोत्सर्ग में स्थिर होकर खड़े रहे। मध्यरात्रि के समय दासी फिर आई। सोचामहाराज अभी तक खड़े हैं ! हो न हो, आज ये कोई विशेष साधना कर रहे हैं, अतः कहीं ऐसा न हो कि दीपक बुझ जाए और अंधेरा हो जाय। अतः दासी ने फिर दीपक को तेल से छलाछल भर दिया। राजा अपने संकल्पानुसार खड़े रहे। उसके पैरों में भयंकर वेदना होने लगी, नसें फटने लगीं, फिर भी राजा दृढ़तापूर्वक कायोत्सर्ग-ध्यान में खड़े रहे। राजा को अपने शरीर के प्रति आज बिलकुल मोह नहीं रहा। आचार्य भद्रबाहु की यह उक्ति आज राजा के जीवन में चरितार्थ हो रही थी-"जिस प्रकार कायोत्सर्ग में निःस्पन्द खड़े हुए अंग-अंग टूटने और दुःखने लगते हैं उसी प्रकार सुविहित साधक कायोत्सर्ग द्वारा अष्टविध कर्म-समूह को तोड़ डालता है, उन्हें नष्ट कर डालता है।" बाहर तेल का दीपक जलता रहा और राजा के अन्तर में निर्मल भावों का दीप जलता रहा। ज्यों-ज्यों तेल कम होता, दासी दीपक में तेल भरती रही। राजा का संकल्प भी उत्तरोत्तर दृढ़ होता रहा। शरीर की 'असह्य वेदना.से उसने मन को हटा लिया। _ 'आचारांगसूत्र' में कहा गया है-“परीषहों के आने पर काया का सर्वथा व्युत्सर्ग करे और यह सोचे-'जो परीषह या कष्ट हैं, वे मुझमें नहीं, देह में हैं।' जब तक यह जीवन है, तब तक ही ये परीषह और उपसर्ग हैं, ऐसा विचार कर देह का भेदन होते देख, प्राज्ञ संवृत साधक (उसके प्रति रागभाव या ममत्व को छोड़कर) उसे समभाव से सहन करे।" __‘उत्तराध्ययनसूत्र' के अनुसार-“पहले या पीछे, जल के बुलबुले के समान इस शरीर को छोड़ना ही है, फिर कष्ट आदि से भयभीत क्यों होना? जो कष्ट है वह शरीर को है, आत्मा को नहीं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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