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________________ ॐ ४३२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ७ ® मोह-ममत्व पर विजय प्राप्त कर ली थी। भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर की जीवन गाथाएँ कायोत्सर्ग की मुँह बोलती कहानी हैं। विकराल दैत्यों के अट्टहास और विविधि उपसर्गों और परीषहों के रूप में प्राणान्तक असह्य पीड़ा देने पर भी अथवा मारणान्तिक कष्ट आ पड़ने पर भी वे प्रसन्न, आनन्दमग्न एवं अडोल रहे। इन सब का रहस्य एक शब्द में कहें तो कायोत्सर्ग की साधना थी। काया को धारण करके रखते हुए भी वे काया की ममता, मूर्छा एवं आसक्ति से मुक्त हो गए थे। इसीलिए उन महान् आत्माओं के लिए 'वोसट्टकाए, चत्तदेहे' (काया का व्युत्सर्ग कर दिया, काया को मन से त्याग दिया, भुला दिया) जैसे विशेषणों द्वारा उनके. कायोत्सर्ग की स्थिति का चित्रण किया गया है। शुद्ध कायोत्सर्ग का मापदण्ड कायोत्सर्ग के सम्बन्ध में आचार्य सकलकीर्ति कहते हैं-"कायोत्सर्ग. का अभ्यास करने से ज्ञानी प्रबुद्ध साधकों का शरीर पर से ममत्वभाव छूट जाता है और शरीर पर से ममत्वभाव का छूट जाना ही वास्तव में महान् धर्म है और सुख का खजाना है।"१ ___ शुद्ध कायोत्सर्ग कब होता है ? इसके लिए आवश्यकनियुक्ति' में दो गाथाएँ दी गई हैं, उनका भावार्थ इस प्रकार है-“कायोत्सर्गस्थ साधक पर चाहे कोई भक्तिभाव से चन्दन का लेप करे अथवा द्वेषवश वसूले से छीले, चाहे जीवन रहे, इसी क्षण मरण आ जाए, यदि वह देह के प्रति अनासक्त है, अप्रतिबद्ध है, ऐसी ही अन्य संकटापन्न स्थितियों में समचेतना रखता है, वस्तुतः उसी का कायोत्सर्ग शुद्ध है।" “जो साधक कायोत्सर्ग के समय देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यंचकृत सभी प्रकार के उपसर्गों को सम्यक् रूप से (समभाव से) सहता है, उसी का कायोत्सर्ग वस्तुतः शुद्ध होता है।” ___ इतनी निःस्पृहता, इतनी सहिष्णुता और इतनी वीतरागता का प्रत्यक्ष दर्शन और अभ्यस्त हो जाने पर आचरण कायोत्सर्ग में हो जाता है। साधु ही नहीं, गृहस्थ-साधक भी कायोत्सर्ग की साधना कर सकता है, करता है। वह भी देह में रहते हुए विदेह भाव में रमण करने की तैयारी कायोत्सर्ग द्वारा कर लेता है। -प्रश्नोत्तर श्रावकाचार १८/१८४ १. ममत्वं देहतो नश्येत कायोत्सर्गेण धीमता। निर्ममत्वं भवेन्नूनं महाधर्म-सुखाकरम्॥ २. वासी-चंदण-कप्पो, जो मरणे जीविए य सम-सण्णो। देहे य अपडिबद्धो काउसग्गो हवइ तस्स ।।१५४८॥ तिविहाणुवसग्गाणं दिव्वाणं माणुसाण तिरियाणं। सम्ममहियासणाए काउसग्गो हवइ सुद्धो॥१५४९॥ -आवश्यकनियुक्ति १५४८-१५४९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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