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________________ ॐ व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान ® ४३१ ॐ कायोत्सर्ग में देह का नहीं, दोहाध्यास का त्याग करें अतः कायोत्सर्ग में देह का नहीं, देहबुद्धि या देहाध्यास का विसर्जन करना होता है। आशय यह है कि जब साधक कायोत्सर्ग में कुछ समय के लिए बैठता है या खड़ा होता है, तब पहले शरीर को तथा मन, बुद्धि, हृदय आदि को स्थिर करता है, साथ ही मन में संकल्प करता है-कुछ समय के लिए “अप्पाण वोसिरामि।"-अपने शरीर का त्याग करता हूँ। अर्थात् कायोत्सर्ग के दौरान दंश, मशक आदि काटें, खाज-खुजली चले, सर्दी या गर्मी लगे, शरीर को कुछ भी कष्ट हो, लेकिन मैं उस ओर तनिक भी ध्यान नहीं दूंगा। न ही सोचूँगा कि मैं शरीर से दूर हूँ, आत्मा में विचरण कर रहा हूँ। आशय यह है कि 'अप्पाणं वोसिरामि' कहते ही वह शरीर पर का ममत्व-बन्धन ढीला करता है। शरीर के लिए आवश्यक वस्त्र, पात्र, आहार आदि पर से आसक्ति कम करता है, उनका कम से कम उपयोग या उपभोग करता है। ‘अप्पाणं वोसिरामि' पाठ जो बोला जाता है, वह केवल शब्दों तक सीमित नहीं रहता, किन्तु उसकी भावना और अनुप्रेक्षा हृदय के कण-कण में रम जाती है। आत्मा का प्रत्येक प्रदेश यह अनुभव करने लगता है कि मैं इस देह से भिन्न चिदात्मस्वरूप हूँ। शरीर नष्ट होने पर भी आत्मा का नाश नहीं हो सकता। शरीर तो मरणधर्या, विनाशशील, अनित्य है ही। इस पर ममता, मूर्छा, आसक्ति करना बंधन (कर्मबन्ध) का, दुःख का कारण है, संसार (जन्म-मरणादि) का मार्ग है; इसके विपरीत शरीर को तप, संयम एवं संवर-निर्जरारूप या सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म की साधना के लिए उत्सर्ग कर देना, समभावपूर्वक छोड़ देना कर्ममुक्ति (मोक्ष) का मार्ग है। जब शरीर पर से ममत्व या प्राणों का मोह मिट जाता है, तो साधक देहाध्यास या देहबुद्धि से ऊपर उठकर देहातीत दशा में विचरण करने लगता है। श्रीमद् राजचन्द्र ने कहा-देह रहते हुए भी जिसकी दशा देहातीत हो गई, उस ज्ञानी के चरणों में मेरे अगणित वन्दन हों।' वही सच्चा आत्मवादी है। उसी ने देहातीत बनने की कला सीखी है। आर्य खंधक की चमड़ी उतार दी गई। शरीर को छील दिया गया जैसे ककड़ी छीलते हों। फिर भी वे शान्त रहे। ऐसे आत्मवादी को कोई भी कष्ट, भय, परीषह, उपसर्ग या संकट विचलित नहीं कर सकते। न ही रोगादि दुःख उसे भयभीत या विचलित कर सकते हैं। कायोत्सर्ग में स्थित गजसुकुमाल मुनि, मैतार्य मुनि, स्कन्धक मुनि, धन्ना अनगार, मुनि दृढ़प्रहारी, चिलातीपुत्र मुनि आदि सैकड़ों उदाहरण हमारे सामने हैं, जिन्होंने सचमुच में काया का उत्सर्ग करके जिंदगी के १. देह छतां जेनी दशा वर्ते देहातीत। ते ज्ञानीनाचरणमा हो वन्दन अगणीत॥ -आत्मसिद्धिशास्त्र १४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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