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________________ ॐ ४३० 8 कर्मविज्ञान : भाग ७ 8 शरीरादि पर-पदार्थ पर ममत्वादि होने से ही बन्धरूप हैं वास्तव में, शरीर या शरीर से सम्बद्ध वस्त्र, उपधि, गण या आहार आदि पर-पदार्थ अपने आप में (कर्म) बन्धनरूप नहीं हैं, ये बन्धन तब बनते हैं, जब इनके प्रति ममता, आसक्ति, मूर्छा, गृद्धि या देहबुद्धि होती है, राग, मोह या द्वेष, घृणा आदि होते हैं। ये ममता आदि छूट जाने पर तो शरीर आदि उपकारी हो जाते हैं, शरीर आदि से ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप आदि की साधना एवं धर्माराधना की जा सकती है। इसीलिए 'स्थानांगसूत्र' में धर्माचरण करने वाले साधक के लिए शरीर और गण आदि पाँच को आश्रम-आलम्बन का कारण बताया है।' शरीर को कायोत्सर्ग योग्य बनाने हेतु शरीर और आत्मा की पृथक्ता का अभ्यास __इसीलिए कायोत्सर्ग में बहिर्मुख बने हुए शरीर को अन्तर्मुख करके कायोत्सर्ग के योग्य बनाने हेतु इस पर से ममत्वबुद्धि का त्याग करना होता है। 'आवश्यकनियुक्ति' में कहा गया है-“कायोत्सर्ग में सब दुःखों और क्लेशों की जड़-ममता का शरीर से सम्बन्ध तोड़ देने के लिए साधक को यह दृढ़ संकल्प करना चाहिए कि शरीर और है तथा आत्मा और है।''२ ।। 'अध्यात्मरामायण' के अयोध्याकाण्ड में कहा है-“मैं (आत्मा) देह हूँ, इस बुद्धि को अविद्या (अज्ञान) कहा गया है और मैं देह से भिन्न चेतन आत्मा हूँ, इस बुद्धि को विद्या या ज्ञान कहते हैं।"३ पिछले पृष्ठ का शेष(ख) कायाइ-परदव्वे थिरभावं परिहरन्तु अप्पाणं। तस्स हवे तणुस्सगं, जो झायइ णिव्वि अप्पेण॥ -नियमसार, गा. १२१ (ग) ज्ञात्वा योऽचेतनं कायं नश्वरं कर्मनिर्मित। न तस्य वर्तते कार्ये कायोत्सर्गं करोति सः॥ -योगसार, अ. ५/५२ (घ) जल्ल-मल-लित्त-गत्तो दुस्सहवाहीसु णिप्पडीयारो। मुह-धोवणादिविरओ, भोयण-सेज्जादि णिरवेक्खो॥४६७॥ ससरूव-चिंतणरओ दुज्जण-सुयणाण जो हु मज्झत्थो।। देहे वि णिम्ममत्तो काउसग्गो तवो तस्स ॥४६८॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ४६७-४६८ १. धम्मस्स णं चरमाणस्य पंचणिस्सा दाणा प.तं.-छकाया, गणे, राया, गाहावइ सरीरं। -स्थानांग, ठा. ५ २. अन्नं इमं सरीरं, अन्नो जीवुत्ति कयबुद्धी। दुक्ख-परिकिलेसकरं छिंद ममत्तं सरीराओ॥ -आवश्यकनियुक्ति १५४७ ३. देहोऽहमिति या बुद्धिः, अविद्या परिकीर्तिता। नाऽहं देहश्चिदात्मेति बुद्धिर्विद्येति भण्यते॥ -अध्यात्मरामायण, अयोध्याकाण्ड ४/३३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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