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________________ ॐ व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान ॐ ४२९ * इसी प्रकार यहाँ भी काया को आत्मा द्वारा त्यक्ता-सी समझना।'' दूसरी बात यह है-संयमी साधक शरीर के अपाय का निराकरण करने में निरुत्सुक रहता है, इसलिए उसके द्वारा काया का त्याग युक्तियुक्त है।२।। इससे पूर्व-उक्त प्रश्न का सिद्धान्तसम्मत उत्तर यह है कि आत्महत्या करना या काया को अकाल में स्वयं नष्ट-भ्रष्ट कर देना अथवा अनिच्छा से कर्ममुक्ति के उद्देश्य के बिना मद्यपान, व्यभिचार, अतिभोग आदि से या दुर्व्यसनों में फँसकर जल्दी ही मरकर शरीर का त्याग कर देना कायोत्सर्ग (कायत्याग) नहीं है, अपितु काया को संयम या सद्धर्म के पालन के लिए रखते हुए भी उसके प्रति ममत्व का त्याग करना शुद्ध कायोत्सर्ग है। 'भगवती आराधना' में इसी से मिलता-जुलता लक्षण किया गया है-"शरीर के प्रति ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है।" 'नियमसार' के अनुसार-“काय (तन-मन-वचन) आदि परद्रव्यों में स्थिरीभाव का त्याग करके जो आत्मा को निर्विकल्परूप से ध्याता है, उसके कायोत्सर्ग होता है।" 'योगसार' में कायोत्सर्ग का परिष्कत लक्षण दिया गया है-“देह को अचेतन, नश्वर एवं कर्मनिर्मित समझकर जो उसके पोषण (पुष्टि) आदि के लिए कोई कार्य नहीं करता, वह कायोत्सर्गकर्ता है।” इससे भी और अधिक परिष्कृत लक्षण 'कार्तिकयानुप्रेक्षा' में दिया गया है-"जो साधक काया के जल्ल और मल से (कायोत्सर्ग के समय) लिप्त हो जाने पर उसकी चिन्ता नहीं करता, दुःसह रोग हो जाने पर भी उसकी चिकित्सा नहीं करता, मुखादि प्रक्षालन आदि शरीर के परिकर्म से विरक्त हो, भोजन, शय्या आदि से भी निरपेक्ष हो और सदैव अपने स्वरूप के चिन्तन में संलीन रहता हो, दुर्जन और सज्जन के प्रति मध्यस्थ हो, शरीर के प्रति भी ममत्व न करता हो, उसके कायोत्सर्ग नामक तप होता है।"३ १. (क) 'जैनधर्म में तप' से भावांश ग्रहण (ख) ननु च आयुषो निरवशेष-गलने आत्माशरीरमुत्सृजति, नान्यदा; तत् किमुच्यते कायोत्सर्ग इति ? अनपायित्वेऽपि शरीरे अशुचित्वं, तथाऽनित्यत्वं, अपायित्वं, दुर्वहत्वं असारत्वं, दुःखहेतुत्वं, शरीरगतममताहेतुकमनन्तसंसार-परिभ्रमणं, इत्यादिकान् सम्प्रधार्य दोषान्, नेदं मम, नाऽहमस्येति संकल्पवत-तदादराभावात् कायस्य त्यागो घटत एव। यथा प्राणेभ्योऽपि प्रियतमा कृतापराधावस्थिता ोकस्मिन् मन्दिरे (गृहे) त्यक्तेत्युच्यते, तस्यामनुरागाभावान्ममेदं भावव्यावृत्तिमपेक्ष्य एवमिहाऽपि। -भगवती आराधना (वि.) ११६/२७८/१३ २. किं च शरीरापाय-निराकरणानुत्सुकश्च यतिस्तस्माद्युज्यते कायत्यागः। -वही ११६/२७८/१३ ३. (क) देहे ममत्व निरासः कायोत्सर्गः। __ -वही ६/३२/२१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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