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________________ ॐ ४२८ ® कर्मविज्ञान : भाग ७ ॐ की ममत्व बुद्धि की निवृत्ति मानस कायोत्सर्ग है तथा मैं शरीर (के प्रति ममत्व) का त्याग करता हूँ, वचन से ऐसा उच्चारण करना वचनकृत कायोत्सर्ग है और दोनों बाहुएँ नीचे छोड़ (लटका) कर तथा दोनों पैरों के बीच में चार अंगुल का फासला रखकर निश्चल खड़े रहना कायिक कायोत्सर्ग है।'' कायोत्सर्ग : क्यों और कैसे ? काया और उत्सर्ग इन दो शब्दों के योग से कायोत्सर्ग शब्द निष्पन्न हुआ है। . दोनों का मिलकर अर्थ होता है-काया का त्याग। प्रश्न होता है-जीते जी काया का त्याग कैसे हो सकता है? काया के त्याग का अर्थ है-प्राणों का त्याग, वह कैसे सम्भव है? क्योंकि प्राणधारण करने के लिए तो शरीर आवश्यक है। आत्महत्या या आपघात करने से काया का त्याग हो सकता है; किन्तु वह तो सर्वथा वर्जनीय है। जैनधर्म के सिद्धान्तों के अनुसार 'भगवती आराधना' में भी इसी आशय का प्रश्न उठाया गया है-“आयु के निरवशेष समाप्त हो जाने पर आत्मा शरीर को छोड़ती है, अन्य समय में नहीं; तब अन्य समय में कायोत्सर्ग क्यों कहा जाता है? इसका समाधान यह है कि शरीर का त्याग या वियोग न होने पर भी इसके अशुचित्व, अनित्यत्व, अपायित्व (विनश्वरत्व), दुर्वहत्व, असारत्व, दुःखहेतुत्व, शरीरगत-ममताहेतुक अनन्तसंसार-परिभ्रमणत्व इत्यादि दोषों का अवधारण (विचार) करके-'यह मेरा नहीं है और न मैं इसका स्वामी हूँ', ऐसा संकल्प मन में उत्पन्न हो जाने पर शरीर के प्रति आदर या प्रीति का अभाव हो जाता है, एक प्रकार से काया का त्याग ही घटित होता है। जैसे प्राणप्रिया पत्नी से कुछ अपराध हो जाने पर पति के साथ एक घर में रहते हुए (या व्यवहार से उसी पति की पत्नी कहलाने पर) भी उसके प्रति पति के अनुराग का अभाव हो जाने से, 'यह मेरी नहीं है' इस प्रकार की भावव्यावृत्ति हो जाने से वह (पत्नी) त्यक्ता कहीं जाती है, १. (क) बोसिरिद-बाहुतुगलो चतुरंगुल-अंतरेण समपादो। सव्वंग चलणरहिओ काउसग्गो विसुद्धो दु॥६५०॥ जे केइ उवसग्गा देव-माणुस-तिरिक्खचेदणिया। ते सव्वे अधिआसे काउसग्गे ठिदो संते॥६५५॥ काउसग्गम्मि ठिदो चिंदिदु इरियावधस्स अतिचारं। ते सव्वं समाणित्ता धम्म सुक्कं च चिंतेज्जो॥६६४॥ __-मूलाचार, गा. ६५0, ६५५, ६६४ (ख) मनसा शरीरे ममेदंभाव-निवृत्तिः मानसः कायोत्सर्गः। प्रलम्बभुजस्य चतुरंगुलमात्र-पादान्तरस्य निश्चलावस्थानं कायेन कायोत्सर्गः॥ -भगवती आराधना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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