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ॐ व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान ॐ ४२७ ॐ
___ (३) उपविष्ट-उत्थित-जो साधक अशक्ति या वृद्धावस्था के कारण खड़ा तो नहीं हो पाता, अतएव बैठा-बैठा ही कायोत्सर्ग करता है, किन्तु अन्तर में भावशुद्धि का प्रवाह तीव्र है। अतः जब वह पद्मासन या सुखासन आदि से बैठकर धर्म-शुक्लध्यान में रमण करता है, तब उपविष्ट-उत्थित कायोत्सर्ग होता है। इसमें शरीर नहीं खड़ा है, किन्तु परिणाम खड़े हैं। शरीर बैठा है, किन्तु आत्मा खड़ी है।
(४) उपविष्ट-उपविष्ट-जब आलसी एवं कर्त्तव्य-विवेकशून्य साधक शरीर से बैठा रहता है और भावों से भी बैठा रहता है। अर्थात् धर्म-शुक्लध्यान को छोड़कर आर्त-रौद्रध्यानों की या सांसारिक विषयभोगों की कल्पना में उलझा रहता है। अर्थात् शरीर से भी बैठा हुआ है और परिणामों से भी उत्थानशील नहीं है, तब उपविष्टोपविष्ट नामक कायोत्सर्ग होता है। यह कायोत्सर्गों नहीं, मात्र कायोत्सर्ग का ढोंग है, प्रदर्शन है।
उपर्युक्त चार प्रकार के कायोत्सर्गों में से कर्मक्षय के हेतु मुमुक्षु-साधकों के लिए पहला और तीसरा कायोत्सर्ग ही उपादेय है। न दो कायोत्सर्गों द्वारा जन्म-मरण के बन्धन कटते हैं और आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप में पहुंचकर आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करती है।'
कायिक और मानसिक कायोत्सर्ग की विधि कायिक और मानसिक कायोत्सर्ग की विधि के विषय में 'मलाचार' में कहा गया है-“दोनों बाहुएँ लम्बी करके चार अंगुल के अन्तर से दोनों पैर सम रखे हों तथा हाथ आदि अंगों का संचालन न हो, वहाँ शुद्ध (कायिक) कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग में स्थित साधक देवकृत, मनुष्यकृत या तिर्यञ्चकृत या अचेतन (प्रकृति) कृत जितने भी उपसर्ग या प्रकोप हों, उन सबको समभाव से सम्यक् प्रकार से सहन करे तथा कायोत्सर्ग में स्थित सन्त ईर्यापथ में लगे हुए अतिचारों-दोषों को नष्ट करने का चिन्तन करते हुए धर्म-शुक्लध्यान का चिन्तन करे।" 'भगवती आराधना' के अनुसार-"मन से शरीर के प्रति ‘मम इदं' (मेरा यह है) इस प्रकार
१. (क) उट्ठिद-उद्विद उद्विद-निविट्ठ उवविठ्ठ-उट्ठिदो। उवविठ्ठ-णिविट्ठो वि य काउसग्गो चदुट्ठाणो॥
-मूलाचार ६७३-६७७ (ख) उत्थितोत्थितं, उत्थित-निविष्टं उपविष्टोत्थितं उपविष्टोविष्ट इति चत्वारो विकल्पाः।
धर्मे शुक्ले वा परिणतो यस्तिष्ठति तस्य कायोत्सर्गः उत्थितोत्थितो नाम। द्रव्य-भावोत्थान-समन्वितत्वादुत्थान-प्रकर्षः उत्थितोत्थित-शब्देनोच्यते। तत्र द्रव्योत्थानं शरीरं स्थाणुवदूर्ध्वं अविचलमवस्थानं। ध्येयैकवस्तुनिष्ठता ज्ञानमयस्य भावस्य भावोत्थानम्।
__ -भगवती आराधना (वि.) ११६/२.७८/२७ (ग) 'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. १०२ .
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