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________________ ४२४ कर्मविज्ञान : भाग ७ काय - व्युत्संर्ग बनाम कायोत्सर्ग : स्वरूप और विश्लेषण द्रव्य - व्युत्सर्ग में काय- व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग व्युत्सर्ग का प्रथम चरण है। एक व्यक्ति लेट जाता है, शरीर को शिथिल कर देता है, यह केवल शरीर की स्थिरता हुई । परन्तु शरीर को स्थिर कर देने मात्र से कायोत्सर्ग पूर्ण नहीं होता। उसके साथ कायोत्सर्गसूत्र के अन्तिम पदों में 'ठाणेणं मोणेणं झाणेणं' के द्वारा क्रमशः काया की स्थिरता, वाणी की स्थिरता और मन की स्थिरता सूचित की गई है । अन्त में 'अप्पाणं वोसिरामि' द्वारा अपनी काया के प्रति ममत्व के विसर्जन का संकेत किया गया है। भगवान महावीर ने इसी आशय का संकेत व्युत्सर्ग का लक्षण करते हुए किया है - " जो भिक्षु शयन, आसन और स्थान ( सोना, बैठना, उठना) आदि समस्त कायिक क्रियाओं का त्याग करके शरीर को स्थिर कर उसके प्रति ममता का, उसकी सार-सँभाल का त्याग कर देता है। इस प्रकार काया का व्युत्सर्ग कर देने को कायोत्सर्ग नामक छठा आभ्यन्तरतप कहा गया है । ' पूर्ण कायोत्सर्ग : योगत्रय के ध्यानपूर्वक होता है = बहुत-से योगाचार्य एवं विद्वान् केवल मानसिक क्रिया को ही ध्यान मानते हैं, किन्तु जैनाचार्यों ने ध्यान के तीन प्रकार बताये हैं- कायिक, वाचिक और मानसिक । मन की स्थिरता यानी मानसिक ध्यान के लिये काया की स्थिरता कायिक ध्यान तथा वाणी की स्थिरता = वाचिक ध्यान भी आवश्यक है । शरीर की स्थिरता के बिना मानसिक स्थिरता ही नहीं, श्वास की स्थिरता भी नहीं हो सकती । इसलिए मन को स्थिर करने हेतु श्वास को स्थिर करना होगा तथा श्वास को स्थिर करने के लिए शरीर को स्थिर करना होगा, वाणी भी शरीर से सम्बद्ध है। इसलिए कायोत्सर्ग में ध्यान के आधारभूत तत्त्वों में सबसे महान् तत्त्व है - काया की स्थिरता, कायागुप्तियुक्त कायोत्सर्ग । २ ध्यान की पूर्व भूमिका के लिए द्रव्य - कायोत्सर्ग अनिवार्य इस कथन का तात्पर्य यह है कि काया को इतनी स्थिर कर देना कि वह स्वयं ध्यानरूप हो जाए। ध्यान में शरीर ( और उससे सम्बद्ध मन, वचन, बुद्धि आदि) को पूर्णतः शान्त और स्थिर रखना अनिवार्य है । इसीलिए 'सूत्रकृतांगसूत्र' में कहा गया है-“ध्यानयोग का आलम्बन लेकर काया का यानी देहभाव का सर्वतोभावेन व्युत्सर्ग १. (क) 'आवश्यकसूत्र' में कायोत्सर्गसूत्र पाठ का अन्तिम वाक्य (ख) सयणासण-ठाणे वा जे उ भिक्खू न वावरे । कायस्स विउस्सग्गो, छट्टो सो परिकित्तिओ ॥ २. 'प्रेक्षाध्यान: कायोत्सर्ग' (आचार्य महाप्रज्ञ) से भाव ग्रहण, पृ. ९-१0 Jain Education International - उत्तराध्ययन, अ. ३०, गा. ३६ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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