________________
8 व्युत्सर्गतप : देहातीत भाव का सोपान 8 ४२५ 8
(विसर्जन या त्याग = ममत्वत्याग) कर देना चाहिए।" यही व्युत्सर्ग का स्वरूप निर्दिष्ट है। 'स्थानांगसूत्र' की टीका में कायोत्सर्ग का अर्थ किया गया है-शरीर की चंचलता जन्य चेष्टाओं का (स्वेच्छा से) निरोध करना व्युत्सर्गाह है, तप है।'
कायोत्सर्ग के दो रूप : द्रव्य और भाव यहाँ शरीर की चंचलता के त्याग का अर्थ सिर्फ यह नहीं है कि वृक्ष, पर्वत या काष्ठ की भाँति निष्पंद खड़े हो जाना, क्योंकि शरीर की निष्पंदता तो एकेन्द्रिय प्राणियों में भी होती है। पर्वत या काष्ठ पर चाहे जितने प्रहार करो, वह कब चंचल होता है या रोष करता है? केवल इतने से कार्य के लिए कायोत्सर्ग नहीं किया जाता। ऐसी निष्पंदता या काय-स्थिरता तो अविकसित प्राणी की जड़वत् निष्पन्दता या स्थिरता है, वह सचेतन स्थिरता या निष्पन्दता नहीं है। यही कारण है कि जिनदासगणी ने कायोत्सर्ग के भी दो प्रकार बताते हुए कहा है-“यह कायोत्सर्ग भी द्रव्य और भावरूप से दो प्रकार का होता है। द्रव्यतः काय चेष्टा का निरोध द्रव्य-कायोत्सर्ग है और भावतः धर्म-शुक्लध्यान में रमण करना भाव-कायोत्सर्ग है।
शरीर की चंचलता एवं ममता का त्याग करके जिनमुद्रा में स्थिर खड़ा होना अथवा कायोत्सर्गमुद्रा में स्थिर सुखासन से बैठ जाना, कायचेष्टानिरोधरूप द्रव्यकायोत्सर्ग है। तत्पश्चात् धर्म-शुक्लध्यान में रमण करना भाव-कायोत्सर्ग है। मन को जब तक धर्म-शुक्लध्यान के शुभ, पवित्र और शुद्ध भावों और अध्यवसायों में बाँधा नहीं जाएगा, तब तक वह वेदना के कष्ट में या शरीर पर होने वाले प्रहार के अनुभव में समभाव नहीं रख सकेगा। अतः कायोत्सर्ग में मुख्यता ध्यान की है। ध्यान की भूमिका तैयार करने के लिए प्रथम द्रव्य-कायोत्सर्ग किया जाता है, फिर द्रव्य से भावों में प्रवेश करना होता है। यही भाव-कायोत्सर्ग का हार्द है। ध्यानयुक्त कायोत्सर्ग को ही 'उत्तराध्ययन' में सर्वदुःखविमोचक कहा गया है।
— यद्यपि काय-व्युत्सर्ग की द्रव्य-व्युत्सर्ग में गणना की गई है, किन्तु वास्तव में वह द्रव्य से भाव की ओर महाप्रयाण का सूचक है। स्थूल शरीर द्रव्य है, इस अपेक्षा से इसे द्रव्य में ग्रहण भले ही किया गया हो, किन्तु वास्तव में यह स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने की प्रक्रिया है। ‘उत्तराध्ययनसूत्र' में जो कायोत्सर्ग को ही व्युत्सर्गतप कहा
१. (क) झाणजोगं समाहटु, कायं विउसेज्ज सव्वसो। -सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. ८, गा. २६ (ख) व्युत्सर्गार्ह यत्कायचेष्टानिरोधनः।।
-स्थानांग टीका, स्था. ६ २. (ख) सो पुण काउसग्गो दव्वतो भावतो य भवति। दव्वतो कायचेट्टानिरोहो भावतो काउसग्गो झाणं॥
-आवश्यकचूर्णि (ग) काउसग्गंतओ कुज्जा, सव्व-दुक्ख-विमोक्खणं। -उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २६, गा. ४२
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org