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________________ ४२२ कर्मविज्ञान : भाग ७ तब व्युत्सर्गतप की व्यापकता को देखते हुए कहा जा सकता है कि इस तप से जीवन के बाह्य और अन्तरंग दोनों ही पक्ष में निर्ममत्व, निर्भयता, दोषों से आत्मा की सुरक्षा और मोक्षमार्ग में विशुद्ध तत्परता, विवेक-चेतना आदि बढ़ती हैं। वस्तुतः शरीर और आत्मा के गुणधर्म, स्वभाव और स्वरूप आदि के अन्तर का पृथक्करण करके साधक की जब विवेक चेतना पुष्ट या जाग्रत होती है, व्युत्सर्ग की क्षमता में वृद्धि होती है, व्यक्ति में त्याग, प्रत्याख्यान और विसर्जन की शक्ति का विकास होता है। फिर शरीर, गण, उपधि (उपकरण), संसार, भक्त-पान अथवा कषाय, राग, द्वेष, मोह, ईर्ष्या, अहंकार - ममकार, आशा, तृष्णा, लालसा, वासना, फलाकांक्षा या महत्त्वाकांक्षा आदि को स्वेच्छा से छोड़ने में कोई संकोच यां दुःख नहीं होता। उसमें धन, परिवार इन्द्रिय - विषय - सुखों, सुखोपभोग साधनों तथा आसक्ति या घृणा, द्रोह - मोह आदि को छोड़ने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती । जब-जब चाहे तब किसी को भी छोड़ सकता है। व्युत्सर्ग या कायोत्सर्ग की उपयोगिता और प्रयोजन वर्तमान युग अत्यधिक दौड़-धूप और सक्रियता का युग है। आज मनुष्यों का केवल शरीर ही दौड़-भाग करता हो ऐसी बात नहीं है, उनका मन भी बहुत भाग-दौड़ करता है, बुद्धि विभिन्न प्रकार के सुखोपभोग के साधनों की प्राप्ति, सुरक्षा और लालसा के लिए बहुत ही योजनाएँ ( Plans) बनाने में उछलकूद मचाती है, वाणी भी बार-बार कहने, अपने भौतिक और भोगलालसायुक्त विचारों को प्रकट करने के लिए बहुत मचलती है । चित्त लोभ, मोह, राग, आसक्ति, घृणा, ईर्ष्या, अहंकार, ममकार, छल-प्रपंच, धोखाधड़ी, द्वेष, रोष आदि के चक्कर में बार-बार उचटता है। ये सब शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों के प्रति पूर्वसंस्कारवश पुनः पुनः होते हैं, इनसे कर्मबन्ध और कर्म के उदय में आने पर जन्म-मरण-जरा-व्याधि-शोक-चिन्ता आदि दुःख उत्पन्न होते हैं, उन दुःखों को भोगते समय फिर राग-द्वेष, प्रियता-अप्रियता, आसक्ति - घृणा, मोह-द्रोह आदि उत्पन्न होते हैं, उनसे फिर कर्म बँधते हैं फिर उनका दुःखद फल भोगना पड़ता है। इन सब जन्म-मरणादिरूप संसार के दुःखों का तब तक अन्त नहीं होता, जब तक कायोत्सर्गतप द्वारा शरीर और शरीर से सम्बद्ध सजीव-निर्जीव पर - पदार्थों या विभावों को लेकर बँधे हुए कर्मों का अन्त नहीं कर दिया जाए। यही व्युत्सर्गतप का मुख्य प्रयोजन है। इसी प्रकार मन-वचन-काया की पूर्वोक्त प्रकार से दौड़-धूप और सक्रियता के कारण जीवनी-शक्ति एवं ऊर्जा-शक्ति का बहुत ही व्यय और नाश होता है। श्वास की गति बहुत तीव्र हो जाती है। यदि मनुष्य को स्थिर और शान्त करना तथा दीर्घ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004248
Book TitleKarm Vignan Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages697
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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